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२६, वर्ष २६, कि० २
भूल हमारी ही हमको इह, भयी महा दुखदाई विषय काय सस्य संग सेयो, तुम्ही सुध बिसराई || २ || उन इसियो विष जोर भयो तब मोह लहरि चढि भाई । भक्ति जड़ी ताके हरिबें कूं, गुर गारुड़ बताई ॥३॥ यातें चरन सरन भाये है, मन परतीति उपाई । अब जगतराय सहाय की बेही साहिब सेबगताई ||४||
इस पद में कवि अपनी भूल स्वीकार करते हुये कहता है कि हम प्रापके चरण की शरण में श्राये है, हम पर कृपा कीजिए । श्रापके अतिरिक्त अन्य सब देवता स्वार्थ के साथी है।
मनेकान्त
जगतराम के पदों में आध्यात्मिक फागुनों का नोखा सौन्दर्य छोटे-छोटे रूपकों मे प्रस्तुत किया गया है, " यथा
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"सुध बुधि] गोरी संग लेकर, सुरुवि गुलाल लगा रेते रे । समता जल पिचकारी, करुणा केसर गुण छिरकाय रे तेरे ॥ अनुभव पानि सुपारी चरचानि, सरस रंग लगाय रे तेरे । राम कहे जे इह विधि बेले, मोक्ष महल में जाय रे || सु०॥ '
जगतराम ने जैन पदावली के अतिरिक्त और भी अनेकों पदों की रचना की थी। बड़ौत के दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार के एक पदसंग्रह मे जगतराम के सैकड़ों पद [पंकित है। उनके पद जयपुर के बधीपद जी के शास्त्र भण्डार के गुटका नं० १३४ मे भी निविष्ट है । जगतराम ने अपने नाम के स्थान पर कही 'राम' और कहीं 'जगराम' भी लिखा है । उनके पदों को प्राध्यात्मिक और भक्तिपरक पदों की कोटि मे रखा जा सकता है । कवि की रचना देखिए". "मोहि समनि लागी हो जिन जी तुम दरसन की ॥ टेक ॥ सुमति चातकी की प्यारी जो पावस ऋतु सम मानवचन बरसन की ॥१॥ बार-बार तुमको कहा कहिए तुम सब लायक हो मेटो विथा तरसन की । त्रिभुवनपति जगराम प्रभु अब सेवक को दो सेवा पद परसन की ||२|| ' भक्त कवि को प्रभु की छवि अनुपम लगती है। उसे १५. श्री महावीरजी प्रतियक्षेत्र का एक प्राचीन गुटका, साइज ८६, पृ० १६० ।
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पूर्ण विश्वास है कि ऐसे प्रभु के स्मरण से ही मुक्ति मिलती है
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'प्रदभुत रूप अनूपम महिमा तीन लोक में छाजे । जाकी छवि देखत इन्द्रादिक चन्द्र सूर्य गण लाजै ॥ परि अनुराग विलोकत जाको अशुभ करम तजि भाजे। जो जगतराम बने गुमरन तो अनहद बाजा बाजे ॥' निम्न पद मे भी कवि इसी आशय का भाव व्यक्त करते हुए कहता है कि प्रभु के स्मरण से सभी कार्य सिद्ध हो जाते है । अतः इसमें श्रालस्य नही करना चाहिए, क्योंकि यत्न के बिना कार्य बिगड़ जाते है'जतन विन कारज विगरत भाई ॥
प्रभु सुमरन तें सब सुधरत है, या मे वय बलसाई ॥ १॥ विलीनता दुख उपजावत लागत जहाँ ललचाई ॥ चतुरन को व्योहार नय जहां, समझ न परत ठगाई ॥२॥ सतगुरु शिक्षा अमृत पीवी, भय करन कठोर लगाई || ज्यों श्रजरामर पद को पावो, जगतराम सुखदाई ॥ ३॥ '
कविवर ने स्वयं को प्रभु के दास के रूप में भी प्रस्तुत किया है। वे प्रभु के चरणों के निकट ही रहने की आकांक्षा रखते है
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प्रभुजी हो ॥
ही जिन मेरा ॥ १ ॥ करम रहे कर बेरा ।
'तुम साहिब मैं बेरा मेरा चूक चाकरी मो वेरा की साहिब टहल यथाविधि बन नही भावे, मेरो अवगुण इतनी ही लीजे, निश दिन सुमन तेरा ||२|| करो अनुग्रह अब मुझ कार मेटो अव उरझेरा । 'जगतराम' कर जोड़ वीनवं राखौ चरणन नेरा ||३|| ' नेमीश्वर राजुल के कथानक पर प्राचारित इसी प्रकार के एक अन्य पद मे राजुल नेमीश्वर की सुन्दर, श्यामल और सलोनी मुखाकृति पर श्रासक्त है तथा उससे उसे देखे बिना नहीं रहा जाता । वह भी नेमीश्वर के साथ तपश्चरण को जाना चाहती है। इसके अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं सुहाता पद इस प्रकार है'सखीरी विन देखे रह्यो न जाय,
येरी मोहि प्रभु को दरस कराय || सुन्दर स्याम सलौनी मूरति नग रहे निरसन ललचाय ॥ १ ॥ १६. मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुर, पद-संग्रह ० ४९२,
पत्र ७८।७४ ।