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८८, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त
प्रधान है। नीतिकार ने कहा है कि "सर्च संग रहित नमस्कार करना तथा परोक्ष में भी मन वचन काम पूर्वक गुरुषों की भक्ति से विहीन शिष्यों की सर्व क्रियायें ऊसर नमस्कार करना और उनके अनुकूल भक्ति पूर्वक प्रवृत्ति भूमि पर पड़े वीज के समान व्यर्थ हैं।" ज्ञान का सीखना करना यह उपचार विनय के रूप हैं। मुख्तः इसके ३ उसी का चितवन करना, दूसरों को भी उसी का उपदेश भेद एवं १३ प्रभेद है। जिनका पर्यवेक्षण निम्नलिखित देना, तथा उसी के अनुसार न्याय पूर्वक प्रवृत्ति करना, अनुसार किया गया है। ज्ञान का अभ्यास करना और स्मरण करना, ज्ञान के (क) कायिक विनय - चारित्र और ज्ञान मे अपने उपकरण शास्त्र प्रादि तथा ज्ञानवंत पूरुष में भक्ति के से श्रष्ठ जनों अथवा साधु पुरुषों को प्राते हुए देख प्रासन साथ नित्य प्रति अनुकूल माचरण करना यह सब ज्ञान
छोड़कर खड़े होना, कायोत्सर्गादि कृति कर्म करना, उसके विनय है। इसके मूलभूत ८ प्रकार हैं। (१) काल
पीछे पीछे चलना उनसे नीचे बैठना, सोना, प्रासन देना, (२) विनय (३) उपधान (४) वहुमान (५) भनिह्नव
ज्ञान प्राचरण की साधक वस्तु या उपकरण देना तथा (६) व्यंजन (७) अर्थ (4) तदुभय ।
साधु पुरुषों का बल के अनुसार शरीर का मर्दन, काल के
मनुसार क्रिया करना और परम्परा के अनुमार विनय २-वर्शन विनथ-भगवान जिनेन्द्र देव ने अपने दिव्य
करता कायिक विनय है। यह सात प्रकार की होती हैउपदेश द्वा । पदाथों का जैसा उपदेश दिया है उसका उसी
(i) मादर से उठना, (ii) नत मस्तक होना, (iii) रूप में बिना शका के श्रद्धान करना, पंचपरमेष्ठी, अरहत सिद्ध की प्रतिमाएं, श्रुतज्ञान जिनधर्म, रत्नत्रय, प्रागम
प्रासन देना, (iv) पुस्तकादि देना, (v) यथायोग्य कृति और सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा प्रादि करना और
कर्म करना, (vi) ऊंचा प्रासन छोड़ कर बैठना. (vii)
जाते समय ससम्मान भेजना। इनका महत्व बतलाना यह सब दर्शन विनय है।
(ख) वाचिक विनय · प्रादरयुक्त नम्र, हितमित प्रिय ३.चारित्र विनय - मोक्षमार्ग मे चारित्र की महत्ता
प्रागमोक्त, अल्प, उपशात, निबंध, मावद्य, क्रियारहित, सर्वोपरि है। विना चारित्र के मात्र ज्ञान पगुवत् है।
अभिमान रहित वचनो से बोलना वाचिक विनय है। मत: इन्द्रिय और कपायों के परिणाम का त्याग करना
वाचिक विनय मुख्यत: चार प्रकार की है -(1) हित तथा गुप्ति समिति प्रादि चारित्र के अंगो का पालन
विनय, (ii) मित विनय, (m) प्रियकारी विनय, मोर करना ज्ञान और दर्शन युक्त पुरुष के पांच प्रकार के (iv) शास्त्रानुकल बोलना। दुश्चर चरित्र का वर्णन सुनकर अन्तभक्ति प्रगट करना, (ग) मानसिक विनय - धर्म के उपकार में परिणामो प्रणाम करना, मस्तक पर अजलि रखकर पादर प्रगट का होना, सम्यक्त्व की विराधना मे जो परिणाम हो करना और उसका भाव पूर्वक अनुष्ठान चारित्र करना उनका त्याग करना, साधर्मी जनो के प्रति उन्नत एवं पूज्य विनय है।
परिणामरखना मानसिक विनय है। यह दो प्रकार की सविनय-अपने से श्रेष्ठ तपस्वी के प्रति भक्ति है---१. पापग्राहक चित्त को रोकना तथा २. धर्म मे करना उसके प्रति संकल्प रहित होना, संयम रूप उत्तर अपने मन को प्रवर्तन।।
G H गुणों में उद्यम करना, सम्यक् प्रकार श्रम व परिषहो को
परिषदो को विनय के इन पायामों का जीवन में उतारना और सहन करना यथायोग्य पावश्यक क्रियाओं मे हानि-वृद्धिन दैनिक जीवन मे साकार रूप देना मानवीय समन्वति मे होने देना, तप में अपनी प्रवृत्ति को लगाना तप विनय है। सर्वोपरि है । विनय जीवन की वह साधना सीढी है जो
५-उपचार विनय-नैतिक जीवन में अपने द्वारा व्यक्ति के नैतिक, प्राचरण तथा आध्यात्मिक जीवन की दूसरों के प्रति उसके गुणों, साधनामों पथवा मान्य दिशा को प्रकाशवान करता है। प्राशा है प्रत्येक व्यक्ति प्रवृत्तियो के प्रतिरुप प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से श्रद्धापूर्वक जीवन की धन्यता के लिए विनय जैसे प्रशस्त मार्ग को पादर देना उपचार विनय है। मुख्यतः रत्नत्रयघारी अपनायेगा।
महावरा (ललितपुर) महापुरुषों, मुनिराजों, प्राचार्यों मादि के प्रति प्रत्यक्ष भक्ति,
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