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७६, वर्ष २६, कि.२
अनेकान्त
समझते हैं । इस मूर्ति का निर्माण चामुण्डराय के सातिशय उक्त मूर्ति का प्रतिष्ठा काल सन् १८१ मानना समुचित पुण्य का प्रतीक है। उसकी धवल कीति अमर और चिर. जान पड़ता है"। स्थायी है।
.. महाकवि रत्न ने अपना प्रजितपुराण शक सं० ६१५ मति के प्रतिष्ठा समय पर विचार
सन् १९३ ई० में समाप्त किया है। उसमें बाहुबली की बाहुबली की इस मूर्ति की प्रतिष्ठा कब हुई, इस पर मूर्ति को कुक्कुटेश्वर लिखा है। गोम्मटेश्वर नही। और विचार किया जाता है।
इसी पुराण के अनुसार प्रति मम्वे ने उक्त मूर्ति के दर्शन चामुण्डराय ने अपना चामुण्डपुराण (त्रिषष्ठिशलाका' किये थे। इससे स्पष्ट है कि बाहुबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा पुरुषचरित) शक संवत् ६००६० सन् ९७८ मे बना कर सन् ६६३ से पूर्व हो चुकी थी। उस समय तक उसकी समाप्त किया है। उस समय तक वाहुबली की मूर्ति का प्रसिद्धि कुक्कुटेश्वर थी । गोम्मटेश्वर और गोम्मट स्वामी निर्माण नही हुआ था, अन्यथा उसका उल्लेख उक्त ग्रन्थ १
के नाम से नहीं थी। में अवश्य हुमा होता । किन्तु उसमें कोई उल्लेख नहीं है।
गोम्मटसार की रचना बाहुबली की मूर्ति की प्रतिष्ठा इससे स्पष्ट है कि उस समय तक मूर्ति का निर्माण नहीं है
के बाद हुई है, क्योंकि उसमे मूर्ति को गोम्मटेश्वर, गोम्मट हुमा था। बाहुबलि चरित मे गोम्मेटेश्वर की मूर्ति की
न देव जैसे नामों से उल्लेखित किया है और चामुण्डराय की
दर प्रतिष्ठा का उल्लेख निम्न प्रकार पाया जाता है :
प्रशंसा करते हुए उन्हे गोम्मट राय, गोम्मट बतलाया है कल्क्यम् षट् शताख्ये विनतविभव संवत्सरे मासि चंत्रे,
और उनके जयवंत होने की कामना की है। इससे चामुपञ्चम्यां शुक्ल पक्षे दिनमणि दिवसे कुम्भ लग्ने सुयोगे ।
ण्डराय के गोम्मट नाम की प्रसिद्धि हुई है, जो उनका घरू सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटित भगणे सप्तशस्तां चकार ।
नाम था। उन्ही के नाम के कारण मति गोम्मटेश्वर
गोम्मट देव नाम से ख्यात हुई। श्री चामुण्ड राजो बेलगुलनगरे गोमटेशप्रतिष्ठाम् ।।
प्राचार्य जिनसेन ने भगवान् बाहुबली की स्तुति करते ____ इस पद्य से स्पष्ट है कि कल्कि सं०६०० विभव सवत्सर
हए लिखा है कि जो शीतकाल में बर्फ से ढके हुए ऊचे में चैत्र शुक्ला पंचमी रविवार को कुम्भ लग्न सौभाग्ययोग,
शरीर को धारण करते हुए पर्वत के समान प्रकट होते थे। मृगशिरा नक्षत्र में चामुण्डराय ने बेलगुल नगर मे गोम्मटेश
वर्षा ऋतु में नवीन मेघो के जल समूह से प्रक्षालित होते की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। किन्तु इस तिथि के
थे- भीगते रहते थे, और नीम काल मे सूर्य की किरणो सम्बन्ध मे विद्वानो मे मतभेद पाया जाता है । मि० घोषाल
के ताप को सहन करते थे, वे बाहुबली सदा जयवत हो। ने वहद्रव्य सग्रह की अपनी अग्रेजी प्रस्तावना मे उक्त
स जयति हिमकाले यो हिमानी परीतं, तिथि को २ मप्रेल सन् ६८० मे माना है। और श्री
वपुश्चल इवोच्चविभ्रवाविर्बभूव । गोविन्द प ने १३ मार्च सन् ६८१ मे स्वीकृत किया है। नवधनसलिलोधर्यश्च धौतोऽन्दकाले, डा. हीरालाल जी ने २३ मार्च सन् १०२८ मे उक्त तिथि खरघणिकिरणानय्यष्णकाले विषेहे ।। ३६-५११ को ठीक घटित होना बतलाया है। पौर श्याम शास्त्री ने
जिन बाहुबली ने अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग शत्रुओं पर विजय ३ मार्च सन् १०२८ को उक्त तिथि के घटित होने का प्राप्त कर ली है, बड़े-बड़े योगिराज ही जिनकी महिमा निर्देश किया है।
जान सकते है और जो पूज्य पुरुषों के द्वारा भी पूजनीय डा० नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य ने भारतीय ज्योतिप है ऐसे इन योगिराज बाहुबली को जो पुरुष अपने हृदय मे की गणना के अनुसार विभव संवत्सर चैत्र शुक्ला पचमी स्मरण करता है उसका अन्तरात्मा शान्त हो जाता और रविवार को मगशिरा नक्षत्र का योग १३ मार्च सन् १८१ वह शीघ्र ही जिनेन्द्र भगवान् की अजय्य विजय लक्ष्मी मे घटित होना प्रगट किया है । तथा अन्य ग्रहो की स्थिति को प्राप्त होता है। जो बाहबली के गुणो का शान्त भाव भी इसी दिन सम्यक् घटित होती बतलाई है। प्रतएव
शेप पृष्ठ ८6 पर १६. जैन सिद्धान्त भाष्कर भाग थ किरण ४ पृ.