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ध्यान होना है । भाठवें से शुक्लध्यान प्रारम्भ होता है । घाटवें गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्क बीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान से आत्मा में अनन्तगुणी विशुद्धता होती है । क्षोणकपाय नामक बारहवें गुणस्थान में एकत्ववितर्क अविचार नामक का द्वितीय षध्यान होता है। संयोगकेवली के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक सूनीय ध्यान होता है और प्रयोगकेवली के व्युपरतक्रिया निवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान होता है। शुक्लध्यान मोक्ष का साक्षात कारण है। द्वितीय शुक्लध्यान में योगी बिना किसी वेद के एक योग से एक द्रव्य को या एक श्रृणु को अथवा एक पर्याय का चिन्तन करता है ।" केवलज्ञानी सयोगी जिस सूक्ष्म काययोग मे स्थित होकर सूक्ष्म मन, वचन और श्वासोच्छवास का निरोध कर जो ध्यान करते हैं, वह सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान है ।" इससे ही पूर्णज्ञान की उपलब्धि होती है, जिसमे युगश्त तीन लोक व तीन काल के द्रव्य, गुण. पर्यायो का एक साथ ज्ञान होता है ।
मनेकाल
बना रहता है । उन्होने हमे प्रेरित किया है कि निर्ग्रन्थों ! पूर्वकृत कटुक कर्मों को दुर्धर तप से नष्ट कर डालो । मन, वचन काय को रोकने से पाप नहीं बंधते भौर तप करने से पुराने पाप सब दूर हो जाते है । इस प्रकार नए पापो का बन्ध न होने से पुराने कर्मों का क्षय हो जाता है और कर्मों का क्षय होने से दुःखों का क्षय हो जाता है। दुःखो के क्षय से वेदना नष्ट होती है और वेदना के विनाश से सभी दुःखो का नाश होता है ।
भगवान् महावीर की सर्वज्ञता के प्रमाण
भगवान् महावीर अपने समय में हो सवंश के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे । पालित्रिपिटको मे कई स्थानों पर दीर्घतपस्वी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी विशेषणों के साथ नियंत्र भगवान महावीर का उल्लेख किया गया है । 'मज्झिमनिकाय' में उल्लेख है " प्राबुस । निर्ग्रन्य ज्ञातृपुत्र सर्वज्ञ सर्वदर्शी है। वे अपरिशेष ज्ञान दर्शन सम्पन्न है। चलते खड़े रहते, सोते जागते सभी दिशाओं में उन्हें ज्ञान दर्शन
३५. स्वामित
३६. स्वामिकार्तिकेयनुप्रेक्षा ४८६
२७. मज्झिमनिकाय लक्खग्धसतान्त
३८. यश प्राप्तो वास ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् सगभवर्द्धमानादिरिति ।
बिन्दु प० पु. ९८
३६ यस्माल्लीनं जगत्सर्वं तस्मिल्लिडगे महात्मनः । नागमित्येव प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
श्राचार्य धर्मकीर्ति ने भी तीर्थंकर ऋषभ तथा वर्द्धमान की सर्वजना का उल्लेख किया है ।" वैदिक साहित्य में भी भगवान महावीर की सजता के संकेत मिलते हैं। 'स्कन्दमहापुराण में भ० वर्द्धमान तथा केवलज्ञान का उल्लेख है।" तीर्थंकर ऋषभदेव का तो पष्ट रूप से सर्वज के रूप मे उल्लेख किया गया है।" 'महाभारत' मे तो यहा तक कहा गया है कि सर्वन ही आत्मदर्शी हो सकता है । इन उल्लेखी से भगवान महावीर की सर्वज्ञता का निश्चय हो जाता है। भगवान महावीर की वाणी से प्रसूत भागम ग्रन्थों में उपलब्ध तथ्यों को वैज्ञानिकता से भी उनके सर्वज्ञ होने का प्रमाण मिल जाता है ।
इस प्रकार आगमप्रमाण के द्वारा सर्वज्ञ उत्कृष्ट ज्ञान के पारक प्रभिन् केवलज्ञान ऐश्वर्य से विभूषित होते है। केवलज्ञान में प्रत्यक्ष रूप से सभी द्रव्यों और उनकी पर्यायों का एक साथ प्रतिविम्व झलकता है। व्यवहार अनुमान से भी ऐसे सर्वज्ञ होने मे कोई बाधक प्रमाण नही है । गवर्नमेन्ट कालेज, नीमच (मध्य प्रदेश )
तथाभूतं वर्द्धमानं दृष्टवा तेऽपि सुरर्षयः । विष्णुवायुवाग्निलोकपालाः सपन्नया ||
स्कन्द महापुराण, ६, २१-३१ रम्येयुपभोऽयं जिनेश्वरः । चकार सर्वगः शिवः ॥ प्रभाष ० ५६ पश्यन्ति एवं स्वमात्मानमात्मना । सर्वशः सर्वदर्शी च क्षेमजस्तानि पश्यति ॥ महा०
४१. श्रोत्रादीनि न
-१९६५
४०. कैलाशे विपुले स्वावतारं सर्वज्ञ