Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 87
________________ ५० बर्ष २६, कि०२ अनेकान्त के द्वारा स्वर्णपापाण मादि मे बाम एवं अन्तरंग मल का उनकी पर्यायों को समस्त रूप से जानता, देखता है। पूर्ण प्रभाव पाया जाता है।" 'दोषावरण' से यहा अभि- जैन दर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्प्राय कर्म रूप प्रावरण से भिन्न प्रज्ञान राम द्वेषादि है, चारित्र की समन्वित पूर्णता के साथ कैवल्योपलब्धि होती जो स्व-पर परिणाम हेतु से होते है। धर्म से भी सूक्ष्म है। व्यवहार नय के अनुसार सात तत्त्वों तथा उन पदार्थों पदार्थों को जानने वाला धर्म-ज्ञान से कैसे बच सकता है ? के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन है। संशय, विपर्यय और मतः सर्वज्ञ को धर्म जानने का निषेध करना मीमांसकों अनध्यवसाय रहित तथा प्राकार विकल्प सहित जैसा का को उचित नहीं है। संक्षेस में. सर्वज्ञ भगवान का ज्ञान तसा जानना सम्यग्ज्ञान है। अशुभ क्रियानों से निवृत इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से रहित प्रत्यक्षज्ञान सिद्ध है। होना और शुभ क्रियानों में प्रवृत्ति करना व्यवहार. नैयायिकों के अनुसार योग विशेष से उत्पन्न हुए अनुग्रह है। परन्तु निश्चयनय से रत्नत्रय प्रात्मा को छोड़ कर से योगियों की इन्द्रियां परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थों को अन्य द्रव्य मे नही पाया जाता। इसलिए प्रात्मा में रुचि जान लेती है। फिर, जो परम योगीश्वर है वे सम्पूर्ण होना, प्रात्मा का अनुभव और ज्ञान होना तथा प्रात्मा मे सक्ष्म पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं प्राप्त कर सकते है। लीन होना पारमाथिक रत्नत्रय है। इसलिये चार घातिया परन्त सर्वज्ञ का ज्ञान सामान्य प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन को कमों के नष्ट हो जाने पर पूर्ण ज्ञानमय कैवल्योपलब्धि अपेक्षा से रहित है, इसलिये परमार्थ प्रत्यक्ष है। वह होते ही विद्या RT ने त में लीनो मात्मा का स्वभाव तथा पूर्ण ज्ञान कहा गया है। उसे ही है। द्रव्याथिक दष्टि से यही कहा जा सकता है।" प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहते है। 'नियमसार' में भी कहा गया है-केवली भगवान क्या प्रात्मज्ञ ही सर्वज्ञ है ? व्यवहार दृष्टि से सभी द्रव्यों को उनकी गुण, पर्यायों प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि जो अहंन्त को सहित देखते जानते है ; किन्तु निश्चयनय से प्रात्मा को द्रव्य, गुण और पर्यायपने से जानता है, वह प्रात्मा को जानते, देखते है । " वस्तुत: इन दोनो कथनों में कोई जानता है।" प्ररहत भगवान और अपनी विशुद्ध प्रात्मा विरोध नही है। प्राचार्य सिद्धसेन सूरि कहते है कि मात्र दोनों समान है। इसलिये अपनी शुद्ध पात्मा को जानने अपने-अपने पक्ष में संलग्न सभी नय मिथ्यादष्टि है, वाला सर्वज्ञ है। वास्तव में इन मे कोई भेद नहीं है। परन्तु ये ही नय यदि परस्पर सापेक्ष हो तो सम्यक् कहे किन्तु हम प्रज्ञानी लोग इन मे भेद करते है ।" वस्तुतः जाते है। केवल ज्ञानी सहज रूप में अपने आप का मात्मा ही केवलज्ञानमूर्ति है। केवलज्ञानी प्रात्मा सारे निरीक्षण करते रहते हैं। क्षायिक उपयोगी होने के कारण संसार को और लोक में रहने वाले छहों द्रव्यों तथा केवलज्ञानी का सतत प्रात्मा में उपयोग रहता है, उसी २१. दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । २५. द्रव्यसंग्रह, ४१-४२, ४३ । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।। २६. वन्धच्छेदात्कलयदतुल मोक्ष मक्षय्यमेत-अष्टसहस्री, कारिका ४ । नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । २२. धर्मादन्यत्परिज्ञातं विप्रकृष्ट मशेषतः । एकाकारस्वरसमरतोत्यन्तगम्भीरधीर येन तस्य कथं नाम धर्मज्ञत्वं निषेधनम् ।। पूर्ण ज्ञानं ज्वलित मचले स्वस्य लीनमहिम्नि ।। -श्लोकवातिकालंकार -नियमसारकलश, २७१ २३. जो जाणदि प्ररहत दम्बत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । २७. जाणादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगव । सो जाणदि प्रप्पाण मोहो खलुजादि तस्सलयं ।। केवलणाणी जाणादि पस्सदि णियमेण प्रपाण ।। --प्रवचनसार, गा०८० -नियमसार,१५६ २४. सर्वज्ञवीतरास्य स्ववशस्यास्य योगिनः । २८. तम्हा सम्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। न कामपि मिदां वापि तां विमो हा जडा वयम् ।। अण्णोण्णणिस्सिया उण हवंति सम्मत्तसम्मावा ।। -नियमसारकलश, २५३ (अमृतचन्द्रसूरि) -सन्मतिमूत्रत्र, १२१

Loading...

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181