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भगवान् महावीर की सर्वज्ञता
समय पर रूप से अन्य समस्त पदार्थों का ज्ञान भी होता (तत्वार्थसूत्र १, २६) के अनुसार प्रत्येक द्रव्य की अनन्त है। किन्तु छद्मस्थ का उपयोग एकांगी होता है, इसलिये पर्याय तथा छहो द्रव्यों की समस्त प्रवस्थानों को केवल. जिस समय वह प्रात्मोन्मुखी हो कर समाधिनिरत होता ज्ञान युगपत् (एक साथ) जानता है। केवलज्ञान व्यापक है, उसी समय प्रात्मनिरीक्षण करता है। निर्विकल्प रूप से सभी जयपदार्थो को युगपत् प्रत्यक्ष जानता है।" समाधिस्थित पुरुष ही विशुद्ध स्वात्मा का अनुभव करते इसलिये यह कहना ठीक नही है कि सर्वज्ञ के ज्ञान में है। प्रात्मा का निश्चयनय से एक चेतना भाव स्वभाव केवल वर्तमान पर्याय ही प्रत्यक्ष होती है, यदि ऐमा है। प्रात्मा को देखना, जानना, श्रद्धान करना एव परद्रव्य माना जाए कि सर्वज्ञ के ज्ञान में भूत, भविष्य को पर्याय से निवृत्त होना रूपान्तर मात्र है। प्रात्मा का परद्रव्य के प्रत्यक्ष रूप से प्रतिविम्बित नहीं होती, तो फिर उनमे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिये परद्रव्य का ज्ञाता और अल्पज्ञ में क्या अन्तर रह जाएगा? फिर, भतकाल द्रष्टा, श्रद्धान-त्याग करने वाला आदि व्यवहार से कहा की बातों का ज्ञान कई उपायो मे कई रूपो में जाना जाता है। यहां यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जीव जाता है। अत: भविष्य की पर्यायों का ज्ञान होने में क्यों को ज्ञान तो उसके क्षयोपशम के अनुसार स्व और पर की आपत्ति होनी चाहिए ? निश्चित ही सर्वज का ज्ञान प्रतीभत-भविष्य और वर्तमान की अनेक पर्यायों का हो सकता द्रिय होता है तथा अनन्त पर्यायों को प्रत्यक्ष करता है। है, किन्तु उसे अनुभव उसकी वर्तमान पर्याय का ही होता वह अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त, अमूर्त, अनुत्पन्न एव नष्ट है। जो पदार्थ किसी ज्ञान के ज्ञेय है, वे किसी न किसी पर्यायो को भी जानता है।" ज्ञान के सर्वजत्व को स्पष्ट के प्रत्यक्ष अवश्य है।
करते हुए कहा गया है कि नेप सब कुछ है । जव तो यहां सहज ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या समस्त लोकालोक है। इसलिये सभी प्रावरणों का क्षय सर्वज्ञ के ज्ञान मे असद्भुत पर्याय भी प्रतिविम्बित होती होते ही पूर्णज्ञान सब को जानता है और फिर कभी सबके है ? जो पर्यायें भविष्य में होने वाली है, जिनका सदभाव जानने से च्युत नही होता, इसीलिये ज्ञान सर्वव्यापक है। नही है, वे कैसे ज्ञान का विषय बन सकती है ? इसो जनदर्शन में प्रात्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकाल के के साथ यह प्रश्न भी सम्बद्ध है कि मन एक साथ सब सर्वद्रव्यो को एवं उनकी पर्यायो को जानने वाला होने से पदार्थो को ग्रहण नहीं कर सकता है और क्रम से सब सर्वगत है।" केवलजान का विषय सर्व द्रव्य और पर्याय पदार्थो का ज्ञान बनता नही है, क्योंकि पदार्थ अनन्त है, है। केवलज्ञानी केवलज्ञान उत्पन्न होते ही लोक और इसलिये जब तक युगपत् पदार्थो को न जाने तब तक अलोक दोनो को जानने लगता है ।" एक द्रव्य को या सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ?
एक पर्याय को जानने की अवस्था केवलज्ञान के पूर्व की जैन आगम ग्रंथो में "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" है। सातवें गुणस्थान (प्राध्यात्मिक भूमिका) तक धर्म
२६. 'सवणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो।' पलय गय च जाणादि त णाणदिदियं भणियं ।। -समयसार, १४४ ।।
-प्रवचनसार, ४१
३१. 'ततो नि.शेषावरणक्षयक्षण एव लोकालोकविभागविम टीका-'समयसारमनुभवन्नेव निर्विकल्पसमाधिस्थः
क्तसमातवस्त्वाकारपारम्पा,म्य तथैव--- -पुरुषदृश्यते ज्ञायते च.'
प्रत्युतत्वेन व्यवस्थितत्वान ज्ञानं सर्वगतम ।' ३०. ततःसमन्ततश्चक्षुरिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः ।
----प्रवचनसार, गा ६ २३ की टीका । निःशेषद्रव्यपर्याय विषयं केवलं स्थितम् ।।
३३. सव्वगदो जिणवमहो हव्वे वि य तगया जगदि प्रहा। -तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृ. ३५३
णणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते मणिया ।।
-प्रवन्सार, ३१. अपदेसं सपदेस मुत्तममुत्त च पज्जयमजादं ।
३४. दशवकालिकसूत्र, ४, २२