________________
७४, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त कि प्रावि ब्रह्मा ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत ने उनकी समता और अहिंसा की प्रतिष्ठा से जाति विरोधी अपने कुल का अच्छा उद्धार किया था। पाप से सनी हुई जीव सिंह हिरणादिक अपना वर भाव छोड़कर उस पर्वत जिस राज्य लक्ष्मी को तू अविनाशी समझता है, वह तुझे पर निर्भय होकर विचरण करते थे। इन्द्रियजय पौर हो मुबारिक हो। मब वह मेरे योग्य नही है। अब मैं तप परीषहजय से उनके विपुल कर्मों की निर्जरा हो रही थी। रूपी लक्ष्मी को स्वीकार करना चाहता हूं। मुझसे जो उन्होने क्षमा से क्रोध को जीता था अहकार के त्याग से माराध हुमा हो, उसे क्षमा करो। मैं अपनी चचलता के मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ पर कारण विनय को भूल बैठा, इसका मुझे खेद है। विजय प्राप्त की थी"। माहार, भय, मैथन और परिग्रह
बाहुबली की इस उदार वाणी को सुनकर चक्रवर्ती रूप चार सज्ञामो पर विजय प्राप्त की थी। सतत जागरुक सन्तप्त हृदय कुछ शीतल हुमा, और वह अपने दुष्कृत्य के पौर स्वरूप में सावधान रहने से कषायरूपी नोर उनकी लिए पश्चाताप करने लगा। उसने बाहुबली की बहुत रत्नत्रय निधि (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र) अनुनय विनय की, परन्तु बाहुबली अपने संकल्प से रच- को नही चरा सके थे। तपश्चरण से उन्हे अणिमामात्र भी विचलित नहीं हुए। और अपने पुत्र महाबली महिमादि अनेक ऋद्धियां प्राप्त हो गई थी। क्रीडार्थ पाई को राज्य देकर विरक्त हो वन मे जाकर तपस्या करने हुई विद्यारियां कभी कभी उनके शरीर पर लगी हुई लगे । उन्होने सर्व परिग्रह का परित्याग कर एक वर्ष माधवीलता को हटा देती थी"। तपश्चरण से उनका का प्रतिमायोग धारण किया । बाहुबली ने एक शरीर अत्यन्त कृश हो गया था किन्तु प्रात्मतेज चमक वर्ष तक एक ही स्थान में स्थित होकर घोर तपश्चरण रहा था। तपश्चरण और ध्यान केवल उनकी तप-शक्ति किया उनका तपस्वी जीवन बड़ा ही कठोर रहा है। बढ़ गई थी और लेश्या भी शुक्ल हो गई थी। एक वर्ष वे एक वर्ष में भूख, प्यास, शीत-उष्ण, दंश मशक का उपवास समाप्त होते ही भरतेश ने प्राकर उनके मादि विविध परीषहों को सहन करते हुए अपने शुद्ध चरणों की पूजा की। पूजा करते ही उन्हे बोधिलाभचैतन्य भाव में तन्मय रहे । वर्षा सर्दी गर्मी मादि केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई। बाहुबली के चित्त में ऋतनों में होने वाले विविध कष्टो की परवाह न करते हुए शल्य का जो कोई सूक्ष्म अश प्रवशिष्ट था उसके दूर होते शम भाव में रहे हैं। उनकी दृष्टि में मान अपमान, सुख- ही वे पूर्ण ज्ञानी ही गये। भरत ने उनके केवलज्ञान की दुःख जीवन-मरण, घन-घान्य, कचन और काच आदि पूजा की पौर देवादिकों ने भी पूजा की। उन्होंने अनेक सभी पदार्थों में समता रही है। उनके इस तपस्वी जीवन देशों में विहार किया और जनता को सन्मार्ग का उपदेश मे माधवी लताए बाहनो से लिपट गई थी, और सर्पो ने दिया। प्रौर कैलाश पर्वत पर जाकर स्वात्मोपलब्धि को चरणो के नीचे वामियां बना ली थी और वे सर्प उनके प्राप्त किया-सिद्ध परमात्मा बन गए। शरीर पर चढ़ जाते थे, जिससे वे भयंकर प्रतीत होने लगे
बाहुबली की मूर्ति थे। विद्याधरियों ने माधवी लता के पत्तों को तोड़ दिया बाहुबली की पावन स्मृति में चक्रवर्ती सम्राट् भरत था जिससे वे सूख कर उनके चरणों में गिर पड़े थे। ने पोदनपुर मे बाहुबली की समुन्नत सुवर्णाकित प्रशान्त ११. परीषहजयादस्य विपुला निर्जराभवत् ।
वल्लीरुद्धष्टयामासुः मुनेः सर्वाङ्गसङ्गिनी ॥ कर्मणो निर्जरोपायः परीषहजयः परः ॥ ३६-१२८
मा. पु. ३६-१८३ क्रोधं तितिक्षया मानम् उत्सेकपरिवर्जनः ।
१४. इत्युपारूढं सध्यानबलोद्भूततपोबलः । मायामृजतया लोभं सन्तोषेण जिगीयसः ।। १२६
स लेश्याशुद्धिमास्कन्दन शुक्लध्यानोन्मुखोऽभवत् ।। १२. कषाय तस्करनस्यि हृतं रत्नत्रयं धनम् ।
वत्सरानशमस्यान्ते भरतेशेन पूजितः । सततं जागरूकस्य भूयो भूयोऽप्रमाद्यतः ॥ ३६॥१३६ स भेजे परमज्योतिः केवलाख्यं यदक्षयम् ॥ ३. विद्यापर्यः कदाचिच्च क्रीडाहेतोरुपागताः ।
मादिपुराण ३६, १४-१८५