Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 80
________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली ७३ टेढी किये बिना सहन करे। भाई भाई का यही धर्म है। होकर नीति अनीति का विचार न कर बाहुबली पर चक्र सब राजामों और मत्रियों के प्राग्रह से दोनो भाइयो ने चला दिया। किन्तु देवोपुनीत अस्त्र वश घात नही करते। इस विचार को स्वीकार किया। तुरन्त ही सेना में यह प्रत चक ने बाहुबली के पास जाकर उसकी प्रदक्षिणा घोषणा कर दी गई कि दृष्टि युद्ध, जल युद्ध और बाहु की और तेजहीन होकर वहीं ठहर गया। उस समय यद (मल्लयुद्ध) मे दोनो मे से जो विजयी होगा वही दोनों पक्ष के प्रमय प्रमख राजामो ने बाहबलि की जयलक्ष्मी का स्वामी माना जावेगा। प्रशसा करते हुए उनका खूब आदर सत्कार किया। मापने इस घोषणा के बाद दोनों ओर के प्रमुख-प्रमुख पुरुप . खूब पराक्रम दिखलाया ऐसा उच्चस्वर से कहते हुए बाहु. अपने अपने स्वामी के साथ दोनो ओर बैठ गये। सबसे बली ने भरत को कन्धे से धीरे से उतारा । पहले दष्टि युद्ध हया, उसमे बाहुबली विजयी हुए। अपने उस समय बाहबली ने अपने को बड़ा अनुभव किया, स्वामी की विजय से हपित हो वाहुबली को सेना जयघोप किन्तु घटनाचक ने उन्हें विचार सागर में निमग्न कर करने लगी, तब प्रमुख पुरुषों ने रोककर मर्यादा को दिया । वे सोचने लगे, देखो, हमारे बड़े भाई ने इस नश्वर रक्षा की। . राज्य के लिए कैसा लज्जाजनक कार्य किया है। यह इसके बाद दोनों भाई जल युद्ध करने के लिए सरोवर राज्य क्षणभगुर है और उस व्यभिचारिणी स्त्री के समान मे उतरे और अपनी लम्बी भुजानों से एक दूसरे पर पानी है, जो एक स्वामी को छोड़कर अन्य के पास चली जाती फैकने लगे । भरत से बाहुबली लम्बे थे। प्रतः भरत के है। यह राज्य प्राणियों को छोड़ देता है। परन्तु अविवेकी द्वारा फैका गया पानी बाहुबली के विशाल वक्षस्थल से प्राणी इसे नहीं छोड़ते। भाई को परिग्रह की चाह ने टकरा कर ऐसे लौटता था जैसे पर्वत से टकराकर समुद्र अन्धा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी की लहर लोट पानी है, और बाहुवनी के द्वारा उछाला दर भगा दिया है। पर देखो. दनिया मे fatar free गया पानी भरत के मुख, पाख, नाक और कानों में भर स्थिर रहा है ? प्रहकार की चेष्टा का दंड ही तो अपमान जाता था। अतः जलयुद्ध मे भी भरत पराजित हुए। है। तुम्हे राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हाली और जो बाहुबली के सेना ने पुनः जयघोष किया। उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में झता ली। उस पश्चात् दोनों नर शार्दूल बाहुयुद्ध के लिए रंगभूमि में राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय अन्याय का विवेक उतरे। दोनों ने हाथ मिलाये, ताल ठोंकी, पंतरे बदले भुला देती है । पोर इन्सान को हैवान बना देती है। अब मौर फिर मापस में भिड़ गये। सहसा बाहुबली ने चक्र- मैं इस राज्य त्याग कर प्रात्म-साधना का अनुष्ठान करना वर्ती भरत को दबोच लिया और उन्हें एक हाथ से उठा- चाहता हूं। भरत को बुद्धि भ्रष्ट हो गई है वह इस नश्वर कर पलात्चक्र के समान घुमा डाला। बाहुबली चाहते राज्य को प्रविनश्यर मानता है। तो चक्रवर्ती को जमीन पटक सकते थे। किन्तु उन्होंने बाहुबली ज्यों ज्यो अपने बड़े भाई की नीचता का माखिर बड़े भाई हैं उनकी पद मर्यादा का विचार कर विचार करते त्यों त्यों उन्हे घोर कष्ट होता था। मन में वसा नहीं किया, और चक्रवर्ती को अपने कन्धे पर बैठा वह भरत से बोने-राजधेष्ठ ! क्षण भर के लिए अपनी लिया। उस समय बाहबली के पक्ष में तुमल जयघोष को छोड़ कर मेरी बात सुनो -- तुमने प्राज बड़ा दुम्माहम हुमा । पौर भरत के पक्ष के राजामों ने लज्जा से अपने किया है जो मेरे इस अभेद्य शरीर पर चक्र का प्रहार सिर झुका दिये। किया है। जैसे वन के बने पर्वत को वन की कुछ हानि दोनों पक्षों के सामने हुए अपमान से भरस क्रोध से नहीं पहुंचती वैसे ही तेरा यह चक्र मेरा बाल भी बांश अन्धा हो गया। निधियों के स्वामी उस भरत ने बाहुबली नहीं कर सकता। दूसरे तुमने जो अपने भाइयो का घर की पराजय करने के लिए शत्रु समूह का विनाश करने उजाड़ कर राज्य प्राप्त करना चाहा है उससे तुमने खुन काले सुदर्शन चक्र रन का स्मरण किया, और विवेकहीन धर्म भोर यश कमाया है। प्राने वाली पीढ़िया कहमी,

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