Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 78
________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली भरत के छोटे भाइयों ने राज्य का परित्याग कर दिया बाहुबली पर दृष्टि पडते ही कुछ घबरा-सा गया। विनम्र किन्तु फिर भी भरत का मन निराकुल न रह सका, क्योकि मस्तक से दूत ने बाहुबली को नमस्कार किया मोर बाहुबलवान बाहुबली प्रभी राज्यासीन था, और उसे अनुकल बली ने सत्कारपूर्वक उसे अपने पास बिठाया। जब दूत करना सरल नहीं था। अपना स्थान ग्रहण कर चुका, तब बाहुबली ने मुस्कराते भरत-बादलो युट हए कहा-भद्र ! समस्त पृथ्वी के स्वामी आपके चक्रभरत जानते थे कि बाहुदली बलशाली है, मामान्य वर्ती कुशल से तो है। भाज बहुत दिनो बाद उन्होंने हम सदेशों से वह वश में नहीं हो सकता । अन्य क्षत्रिय राज. लोगों को स्मरण किता है। सुना है उन्होने सब राजानों कुमारों पोर बाहुबली में उतना ही अन्तर था, जितना का जति लिया है, और सब दिशामों को अपने अधीन हिरणों और सिंह मे अन्तर होता है। बाहबली वीर और कर लिया है। उनका यह कार्य समाप्त हो चुका है या पराक्रमी होने के साथ-साथ बडा नीतिज्ञ और उग्र प्रकति कुछ शेष है। का है। इमलिए युद्ध मे उसे वर से नही किया जा दूत विनयपूर्वक बोला----देवहम लोग दूत है, गुण सकता। भाईपने के कपट से जिसके अन्तरंग में विकार और दोपों का विचार करने में असमर्थ है। प्रतः अपने छिपा हमा है और जिसका कोई प्रतीकार नही। ऐसा स्वामी की प्राज्ञानुसार चलना हमारा धर्म है। चक्रवर्ती यह बाहुबली घर के भीतर उठी हुई अग्नि के समान कूल ने जो उचित प्राज्ञा दी है उसे स्वीकार करने में ही को भस्म कर देगा। जिस तरह वृक्षों की शाखाओं के पापका गौरव है। भरत प्रथम चक्रवर्ती है और मापके प्रय भाग की रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि पर्वत का विधात बड़े भाई है। उन्होने पृथ्वी को वश मे कर लिया है, कर देती है, उसी तरह भाई आदि अन्तरग प्रकृति से देवता उण्हे नमस्कार करते है। उनके एक ही वाण ने उत्पन्न हुप्रा प्रकोप राज्य का विघातक होता है। अतः महासमुद्र के अधिपति व्यन्तरदेव को उसका शिकार बना शान्ति से समस्या का हल होना सम्भव नही है, इसलिा दिया। विजयाधं के पर्वत की दो श्रेणियों के विद्याधरों चक्रवर्ती का चितित होना स्वाभाविक ही है। वे उमका ने भी उसका जयघोष किया है। उत्तर भारत ने वषभाशीघ्र ही प्रतिकार करना चाहते थे । अतः उन्होने बहुत चल पर उन्होने अपनी प्रशस्ति अकित की। म्लेच्छ सोच विचार के बाद एक चतुर दून बाहवली के पास राजाना पर भी विजय प्राप्त की है। देव उनके सेवक है भेजा। अपने स्वामी की कार्य सिद्धि के लिए अनेक उपाय और लक्ष्मी दासी है। उन्ही भरत ने अपने पाशीर्वाद से सोचता हुआ राजदूत पोदनपुर पहुंचा। मापका सन्मान कर प्राज्ञा दी है कि समुद्र पर्यन्त फैला नगर के बाहर घान के पके हुए खेत लहलहा रहे थे, हुमा यह राज्य भाई बाहुबली के बिना शोभा नहीं देता। और किसान कटाई में लगे हुए थे। ईख के खेतों मे गायें प्रतः पाप भरत के समीप जाार उन्हे प्रणाम करें। चर रही थी, उनके थनो से दूघ झरा पड़ता था। भरत की प्राज्ञा कभी व्यर्थ नही जाती। जो उनकी प्रज्ञा किसानों की स्त्रियां खेतों में बैठकर पक्षियों को भगा रही का उल्लंघन करते है उन पर चक्र रत्न प्रव्यर्थ प्रहार थीं। यह सब मनोरम दृश्य देखते हुए दूत ने नगर मे करता है ।' प्रत. आप शीघ्र ही चलकर उनका मनोरथ प्रवेश किया। और राजभवन के मांगन मे पह वकर द्वार- पूर्ण करें। आप दोनों भाइयो के मिलाप से यह संसार पाल द्वारा अपने पागमन का समाचार कहलाया। भी परस्पर मे मिलकर रहना सीखेगा। जब दूत राजदरबार में उपस्थित हुमा, तब तेजपुज दूत के वचन सुनकर मन्द-मन्द हसते हुए धीर-बीर १. ज्ञाति व्याजनिगढान्तविक्रियो निष्प्राप्तिक्रियः । तरु शाखाग्रसंघहजन्मा बन्हियंपागिरेः ।। सोऽन्तर्ग्रहोस्थितोवन्हिरिवाशेषं दहेत् कुलम् ।। -प्रादिपुराण ३५,१७-१८ अन्तः प्रकृतिगः कोपोविधाताय प्रभोर्मतः । २. प्रवन्ध्य शासनस्यास्य शासनं ये विमन्वते । शासनं द्विषतां तेषां चक्रमप्रतिशासनम् ।। ३५-८६.

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