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७०, वर्ष २९, कि०२
अनेकान्त
लगे।
नहीं छोड़ सकता। बाहुबली को छोड़कर अन्य भाइयों ने कहलाया है कि प्राकर मुझे नमस्कार करो. किन्तु हम इस नमस्कार भी किया तो उससे क्या? पोदनपुर के बिना यह जन्म में तो क्या परजन्म मे भी आपके सिवाय अन्य किसी समस्त साम्राज्य मुझे विष के समान है।
देव या मनुष्य को प्रणाम करने में सर्वथा असमर्थ हैं। चक्रवर्ती को कोषान्ध देखकर परोहित ने उपदेला वर्ण हम अापके समीप जिन दीक्षा धारण करने माये हैं. जिनमें वचनों से शान्त करते हुए कहा देव !
शो मापने भाई आपके भाई तो दूसरा का प्रणाम करन स
दूसरों को प्रणाम करने से मानभग का भय नही रहता। बालक हैं अतः वे बाल स्वभाव के कारण कूमार्ग में इच्छा- जो मार्ग सुखद और हितकर हो, वह पाप हम लोगों को नुसार क्रीड़ा कर रमते है किन्तु काम, क्रोध, मोह, लोभ,
बतलाइये। इतना कह कर वे सब कुमार चुप हो गए।
और सब जिज्ञासापूर्वक भगवान के मुख की पोर देखने मद, मात्सर्य इन छ: अन्तरंग शत्रुप्रों को जीतने वाले मापको क्रोध करना उचित नही है। क्रोध रूप गाढ पन्धकार में डूब जाने से प्रात्मा का उपकार नहीं हो सकता।
भगवान ने कहा, हे पुत्रो ! तुम मनस्वी पौर गुणी जो राग अपने अन्तरंग से उत्पन्न होने वाले शत्रपों को
होकर दूसरों के भार वहन करने वाले कैसे हो सकते जीतने में समर्थ नहीं है वह अपने प्रात्मा को नही जानने
हो! यह राज्य और जीवन चंचल है-विनाशी है। वाला कार्य और प्रकार्य को कैसे जान सकता है ? क्रोध
यौवन का उन्माद एक नशा है, सैन्य शक्ति बलात्रों से से कार्य की सिद्धि मे सन्देह बना रहता है। प्रत. आप
पराजित हो जाती है । धन-सम्पत्ति को चोर य से जाते प्रपकार करने वाले इस क्रोध को दूर कीजिए। जितेन्द्रिय
है। वह तृष्णारूपी अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए ईंधन मनुष्य केवल क्षमा से ही पृथ्वी को जीतते है। परलोक
के समान है। इन्द्रिय-विषयों का धास्वारन अनेक बार को जीतने वाले पुरुषों के लिए सबसे उत्कृष्ट साधन क्षमा
कर चुके हो। चिरकाल तक भोग भोगकर भी उनसे ही है। चतुर दूतो को भेजकर अपने भाइयो को वश मे तृप्ति नहीं होती, उल्टा खेद ही होता है। अतएव ये विषय करना उचित है। इससे प्रापको यश होगा। यदि वे विष मिश्रित भोजन के समान है। फिर ऐसे कौन से शान्ति से वश न हो तब ग्रागे का विचार करना चाहिए। विषय है जिन्हें तुमने भोया नही। राज्य भी विनश्वर है, पुरोहित के हितकारी वचनो से चक्रवर्ती का क्रोध शान्त
जिस राज्य में पुत्र-मित्र और भाई-बन्धु शत्रु हो जाते है हो गया और उन्होंने बाहुबली के मिवाय शेप भाइयों के
उस राज्य के लिए धिक्कार है। यह विनश्वर गज्य भरत पाम दूत भेजना उचित समझा। दूतो ने जाकर उन्हे
के द्वारा जब कभी भी छोड़ा जायगा उस अस्थिर राज्य चक्रवर्ती का सन्देश सुनाया। सन्देश सुनकर सब भाइयो
के लिए तुम व्यर्थ क्यो लड रहे हो। जब तक पुण्य का ने परस्पर मे विचार कर दूत से कहा, भरत का कहना उदय है, पृथ्वी का उपभोग कर लो, किन्तु अन्त मे उसे उचित है क्योकि पिता के प्रभाव में बड़ा भाई पूज्य होता छोड़ना ही पड़ेगा। ऐसे अस्थायी राज्य के लिए परस्पर है परन्तु समस्त ससार के जानने-देखने वाले हमारे पिता मे झगड़ना बुद्धिमता नहीं। अत ईर्ष्या करना व्यर्थ है। विद्यमान है वही हमे प्रमाण है, यह राज्य भी उन्ही का तुम लोग धर्मरूपी महावृक्ष के उस दयारूप फल को धारण दिया हुअा है। प्रतः हम उन्ही की मात्रा के अधीन है। करो, जो कभी म्लान नहीं होता और जिस पर मक्तिरूपी भरत से न हमें कुछ लेना है और न देना है। इतना कह महाफल लगता है, वह दूसरों की दीनता से रहित है. कर उन भाइयो ने दूतो को विदा किया और वे सब भाई।
दूसरे भी जिसका आचरण करते है। वह तपश्चरण ही कैलाश पर्वत पर विराजमान ऋषभदेव की सेवा में उप- महाप्रभिमान के धारक तुम लोगों के मान की रक्षा कर स्थित हुए और निवेदन किया
सकता है। प्रात्मा के शत्रु उन कर्मों से लड़ना चाहिए, देव! हमे पापने जन्म दिया है और आपने ही यह
जिन्होंने चिरकाल से तुम्हे अपना दास बना रक्खा है। विभूति प्रदान की है। प्रतः हम मापके सिवाय अन्य भगवान के उपदेश को सुनकर सभी राजकुमार गद्किसी की सेवा नहीं करना चाहते । फिर भी भरत ने गद् हो गए और उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर ली।