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५०, वर्ष २६, कि..
अनेकान्त
हमा है। विनयपिटक", मज्झिमनिकाय", दीधनिकाय खास तौर पर दो घटनायें उल्लेग्व योग्य है--संजय मौर सुत्तनिपात्त" में भी यह नाम मिलता है । महावीर 'जात' विजय नाम के दो चारण मुनियों को तत्त्वार्थ-विषयक वंश के क्षत्रिय थे । 'जात' यह प्राकृत भाषा का शब्द है कोई भारी सन्देह उत्पन्न हो गया था। जन्म के कुछ दिन और 'नात' ऐमा दन्त्य नकार से भी लिखा जाता है। बाद ही जब उन्होंने पापको देखा तो आपके दर्शन मात्र संस्कृत में इसका पर्याय रूप होता है 'ज्ञात'। इसी से से उनका वह सब सन्देह तत्काल दूर हो गया और इस चारित्रभक्ति मे भी पूज्यापादाचार्य ने श्री प्रज्ञातकुलेन्दुना प्रकार उन्होंने बडी भक्ति से आपका नाम सन्मति रखा। पद के द्वारा महावीर भगवान को ज्ञात वंश का चन्द्रमा दूसरी घटना- एक दिन आप बहुत से राजकुमारों के लिखा है और इसी मे महावीर जातपूत अथवा ज्ञातपुत्र माथ वन मे वृक्ष क्रीडा कर रहे थे, इतने में वहा महा भी कहलाते थे, जिसका बौद्धादि ग्रन्थों में भी उल्लेख पाया भयकर और विशालकाय सर्प प्रा निकला और उस वृक्ष जाता है।"
को ही मूल से लेकर स्कन्ध पर्यन्त बैठकर स्थित हो गया श्री जिनदास महत्ता और अगस्त्य सिंह स्थविर के जिस पर पाप चढ़े हुए थे। उसके विकराल रूप को देख कथनानुसार 'ज्ञान' क्षत्रियो का एक कुल या जाति है । वे कर दूसरे राजकुमार भयविह्वल हो गये और उसी दशा जात शब्द से ज्ञातकुल समुत्पन्न सिद्धार्थ का अर्थ ग्रहण करते में वक्षों पर से गिरकर अथवा कद कर अपने-अपने घर है और ज्ञातपत्र से महावीर का"। प्राचार्य हरिभद्र ने ज्ञात को भाग गये, परन्तु प्रापके हृदय मे जरा भी भय का का अर्थ उदार क्षत्रिय सिद्धार्थ किया है। प्रो० बसन्तकुमार संचार नहीं हुआ। आप बिल्कुल निर्भयचित्त होकर उस चटोपाध्याय के अनुमार, लिच्छवियों की एक शाखा या काले नाग से ही क्रीडा करने लगे और मापने उस पर वंश का नाम 'नाय' (नात) था। 'नाय' शब्द का अर्थ सवार होकर अपने बल तथा पराक्रम से उसे खूब ही मम्भवतः ज्ञाति है।" 'नायधम्म कहा' कहा गया है। घमाया-फिराया तथा निर्मद कर दिया। उसी वक्त से 'धनंजय-नाममाला' मे भी महावीर का वश 'नाथ' माना पाप लोक मे महावीर नाम से प्रसिद्ध हए"। गया है और उन्हें नाथान्वय कहा गया है।" सम्भवतः 'नाय' तीस वर्ष के कुसुमित यौवन मे भगवान् महावीर शब्द का ही 'नाथ' और नात अपभ्रश हो गया है। संसार-देहभोगो से पूर्णतया विरक्त हो गये। उन्हें अपने
भगवान महावीर की वचपन की घटनाम्रो मे से प्रात्मोत्कर्ष को साधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त करने १३. महावग्ग पृ० २४२।
१८. (क) दशवकालिक जिनदास चूणि, पृ० २२१, १४. (क) आलि सुत्तन्त-पृ० २२२ ।
(ख) अगस्त्य चणि । (ख) चल दुकाव करबन्ध सुत्तन्त पृ० ५६ । १६. जैन भारती, वर्ष २, अ० १४-१५, पृ० २५६ । (ग) चूल सारोपम सुत्तन्त पृ० १२४ ।
२०, जयघवला-भाग १, पृ० १२५ । (घ) महासच्चक सुत्तन्त पृ० १४७ ।
२१. धनंजय नाममाला, ११५ । (ङ) अभय राज कुमार सुत्तन्त पृ० २३४ ।
२२. सजयस्यार्थसदेहे संजाते विजयस्य च । (च) देवरह सुत्तन्त पृ० ४२८ ।
जन्मान्तरमेव न मन्येत्यालोकमात्रतः ।। (छ) सामागाय मुत्तन्त पृ०४४१ ।
तत्सन्देहगते ताम्यां चारणाभ्या स्वभक्तितः । १५. (क) सामांजफल सूत पृ० १८-२१ ।
प्रस्तेवषसन्मतिर्देवो भावीति समुदाहतः । (ख) सगीति परियाय सूत्त २८२।
- महापुराण, पर्व ७४वां। (ग) महापरिनिर्वाण सूत्त पृ० १४५ ।
२३. इसमे से पहली घटना का उल्लेख प्राय: दिगम्बर (१) पासादिक सूत्त २५२ ।
ग्रंथों में और दूसरी का दिगम्बर तथा श्वेताम्बर १६. सुभिय सुत्त, पृ० १०८ ।
दोनों ही सम्प्रदाय के ग्रथों में बहुलता से पाया जाता १७.
है।