________________
५८, वर्ष २६, कि०
अनेकान्त
संस्कृत रचना की होड़ ने १३वी शती तक कटिन से प्रकृतेरागतं प्राकृतम् । प्रकृतिः संस्कृतम् । कठिन बन्धनों को भी तोड़ डाला। जैन मुनियो के लिए
-निक (दशरूपकवृत्ति) नाटक मादि विनोदों में भाग लेना वजित समझा गया है । प्राकृतशब्दानुशासन के रचयिता महावैयाकरण प्राचार्य फिर नाटक प्रादि की रचना का प्रश्न कैसे उठ सकता था? हेमचन्द्र ने भी 'अथ प्राकृतम्' (८।१११) सूत्र की व्याख्या किन्तु एक समय भाया कि जैन प्राचार्यों ने सस्कृत में करते हुए लिखा है-"प्रकृति: मस्कृतम् । तत्र भव ततः नाटक लिखने प्रारम्भ कर दिये।
मागतं वा प्राकृतम्" संस्कृत के प्रति प्रेम की भावना ने सस्कृत रचना की दण्डी ने भी 'काव्यादर्श' में इसी प्रकार के भाव परम्परा को निरन्तर कायम रखा। कहा जाता है कि
व्यक्त किये है
संस्कृतं नाम देवी वागन्वाख्याता महषिभिः । एक बार सम्राट अकबर की विद्वत्सभा मे जैनो के समस्तसुत्तस्स प्रणन्तो प्रत्यो' (=समस्त प्रागममूत्रो के अनन्त
तद्भवस्तत्समो देशोत्यनेकः प्राकृतः क्रमः ॥(१३६) पर्थ है) वाक्य का किसी ने उपहास किया। यह बात
वाग्भट ने वाग्भटालंकार (२।२) मे लिखा हैमहामहोपाध्याय समयसुन्दर जी को बुरी लगी और
संस्कृतं स्वागणां भाषा शब्द शास्त्रेषु निश्चिता । उन्होंने राजा को 'राजानो ददते मौख्यम्' इस ८ अक्षरी
प्राकृतं तज्जातत्तल्यदेश्याविकमनेकधा । वाक्य के १० लाख २२ हजार चार सौ सात प्रथं कर
इसी तरह, पड भाषाचन्द्रिका मे भी विचार प्रकट
किया गया है : - दिखाये । समयसुन्दर की यह कृति 'पष्टलक्षी' नाम से सस्कृत साहित्य की शोभावृद्धि कर रही है और अभी वह
प्रकृतेः सस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृता मता। अप्रकाशित है।
तद्भवा संस्कृतभवा सिद्धा साध्येति सा विधा।
जब चण्ड अपना प्राकृतसर्वस्व और हेमचन्द्र अपना संस्कृत प्राकृत की स्वामिनी बनी !!
प्राकृतशब्दानुशासन लिख रहे थे, मस्कृत उम ममय एक भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो छान्दस भाषा
समृद्ध भापा थी। पठन-पाठन की भाषा भी यही थी।
पठन-पाठन की भाषा के अतरिक्त शिष्ट समाज के पौर उसकी बोली (यदि कोई थी) के विकसित रूप का
व्यवहार की भाषा के रूप में संस्कृत देश में छा गई थी। ही परिणाम 'प्राकृत' है। किन्तु संस्कृत के देशव्यापी
प्राकृत वैयाकरण संस्कृत के गहन अध्ययन के पश्चात ही प्रभाव की चकाचौध मे प्राकृत व्याकरण के रचयितामो पौर तत्कालीन विद्वानो ने यह कहना प्रारम्भ कर
देशी भापात्रों की ओर उन्मुख हुए होंगे और पस्कृत के
मिद्ध शब्दों के साथ ही देशी भाषा में प्राप्त शब्दो की दिया कि 'प्राकृत की जननी संस्कृत है'।
संगति बैठाने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते होंगे। प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं प्राकृतमच्यते
प्राकृत व्याकरण की शैली भी सस्कृत व्याकरणो के अनु-मार्कण्डेय
रूप है। संस्कृत व्याकरण की तरह से लोप, पागम, प्राकृतस्य सर्वमेव संस्कृतम् योनिः।
प्रादेश प्रादि का विधान प्राकृत व्याकरण में किया गया - बासुदेव (कपूरमञ्जरी टीका) है। यही कारण है कि प्राकृत व्याकरण के निर्माताओं मे प्रातः सस्कृतम् । तत्र भवत्वात् प्राकृत स्मृतम्। संस्कृत को मूल भाषा मान कर प्राकृत को उससे पैदा होने
-प्राकृतचन्द्रिका वाली कह देने की प्रवृत्ति का सूत्रपात प्रा। इभ्यपुत्र का सन्देश था- 'कामेमि ते' (अर्थात् तुझे नेह लोके सुखं किंचिच्छादितस्यांहसा भृशम् । मैं चाहता हूँ)।
मितं च जीवितं नृणा तेन धर्मे मतिं कुरु ।। रानी ने भी उत्तर में एक पद्य लिखा, जो निम्न रानो के सन्देश का रूप था-"नेच्छामि ते" प्रकार है :
(अर्थात् मैं तुझे नहीं चाहती)।