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४. कथा-साहित्य
५.
व्याकरण
६.
कोश
७.
अलंकार (छन्द)
८.
नाटक
६. गणित व ज्योतिष
जैन प्राचार्यो द्वारा संस्कृत में स्वतन्त्र प्रन्थों का प्रणयन
उपमितिभवप्रपंच कथा
ई० ६०५
जैनेन्द्रव्याकरण
ई० ४१३-४५५
ई० ७८०-८१६
१२वी
स० १६४८
८५० ई.
नाममाला, धनेकार्य नाममाला छन्दोनुशासन
ज्ञानसूर्योदय
गणितसारसंग्रह ज्योतिषपटल
जैन श्राचार्यों के समाज में संस्कृत का समादर
उपर्युक्त प्राचार्यों ने संस्कृत में ग्रथ प्रणयन कर स्थायी परम्परा का सूत्रपात्र किया। परवर्ती आचार्यों ने विपुल साहित्य रच कर जैन संस्कृत साहित्य के भण्डार को पूर्ण किया। जब बौद्ध दर्शन मे नागार्जुन, बसुबन्धु, असगत तथा बौद्ध न्याय के पिता दिङ्नाग का उदय हुम्रा और दार्शनिक जगत मे इन बौद्ध दार्शनिको के प्रबल तर्क प्रहारो से खलबली मच रह थी ता जैन दार्शनिकों के सामने प्रतिवादियों के आक्षेपो का खण्डन कर स्वदर्शन की प्रभावना करने का महान् उत्तरदायित्व आपड़ा। इस स्थिति मे भाषा की संकीर्णता को स्थान देना अनुचित था | अन्य दार्शनिको का खण्डन उन्हीं की भाषा मे करना उचित समझा गया और इस प्रकार संस्कृत को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कराने में ग्रागे का मार्ग प्रशस्त हाता गया ।
गुप्तकाल तक संस्कृत को पूरे भारत में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ। जैन माधु-साध्वी नमाज संस्कृत भाषा में भी परिनिष्ठित होने लगा। कहते है कि सिद्धर्मन दिवाकर की मृत्यु के बाद विनी मे एक वैतानिक ( चारण भाट) ने सिद्धसेन की वह्निके समक्ष, जो जैन साध्वी भी मनुष्टुप् छन्द के दो चरण कहे स्फुरन्ति वादिखद्योता: साम्प्रतं दक्षिणापथे ।
उक्त जैन साध्वी ने तुरन्त भागे के दो चरण कहकर उक्त छद को पूरा किया :
१. वैतालिक का कहना था कि श्राजकल दक्षिणापथ में वादी रूप जुगनू इधर-उधर मण्डरा रहे है। जैन साध्वी ने कहा कि इससे यह निश्चित होता है कि सिद्धमेन दिवाकर इस संसार में नही रहे (अन्यथा किसी वादी को स्वपाण्डित्य प्रदर्शित करने का साहस नही होता) ।
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सिद्धर्षि
पूज्यपाद देवनन्दी
धनजय
वाग्भट
बादिन्द्रसूरी
महाबीरावाद
नमस्तंगतो नादी सिद्धगेनी दिवाकर
जैन भागम की टीकामो मे भी इसके उदाहरण मिलते है जिनसे संस्कृत के व्यवहार-भाषा होने का प्रमाण पुष्ट होता है।
मिपि (प्रथम संस्कृत कथाकार) के समय (२० १०५) तक सस्कृत नेता प्राप्त कर को भी कि प्राकृत भाषा को भूलकर लोग संस्कृत वनायों में अपेक्षाकृत अधिक ग्रानन्द अनुभव करते थे । कथाकहानियांजा अबतक प्राकृत जनभाषाओं में रची जा रही थी, संस्कृत में भी स्थान प्राप्त कर सकी। सिद्धपि स्पष्ट पिता है
संस्कृता प्राकृता चेति भाषे प्राधान्यमर्हनः । तापि सस्कृत तावद् दुम्पिदि स्थिता ॥ बालानामपि मद्बोधकारिणी कर्णपेजला | तथापि प्राकृता भाषा न तपाविपते ॥ उपाये सति कर्तव्यविम् । स्तनरोधेन संस्कृतेऽय करिव्यते ॥
- उपमितिभवप्रपचकथा १ / ५१५२ किन्तु निम्न कोटि के लोग तथा स्त्रिया उरामय संस्कृतभाषा न बोलकर प्राकृत भाषा का ही व्यवहार करते जैसा कि आचार्य ने स्वयं पाव्यानुमगनकारिका' की टीका में कहा है. -
बालस्त्री मलमूर्खामा नृणा चारित्रकाक्षिणाम् । पदार्थ प्राकृत 4. ।। २ हरिभद्रसूरि की आवश्यक टीका से एक कथा है, जिसके अनुसार एक दानों के द के पास (एडिया में समान रखने के बढ़ने एक संस्कृत पद्य ि
काले प्रसुप्तस्य जनार्दनम् मेदारी | मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे ने प्रत्यय ने प्रमादारेषु ।