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जैन धर्म में शक्ति पूजा
1 डा. सोहनकृष्ण पुरोहित, जोधपुर
भारत में शक्ति पूजा सिन्धु घाटी की सभ्यता (लग प्रणाली को ज्यो का त्यों स्वीकार कर लिया है। प्राचार्य भग २५००-१७०० ई० पू०) के समय ही प्रारम्भ हेमचन्द्र सूरी ने ध्यान के चार स्वहा बतलाये है पिण्डस्थ हो चुकी थी । लेकिन उसका पूर्ण विकास पौराणिक युग गिदस्थ, रूपस्य और रूप वर्जित । जिस ध्यान का पालम्बन में हुमा। वैदिक साहित्य में भी सविता प्रादि देवियों का दण्ड मे हो, उसे पिण्डस्य ध्यान, जिसमें शब्द ब्रह्म के उल्लेख पाया है। जैन धर्मावलम्बियों की मान्यता है कि वर्णपद वाक्य के ऊपर रचित भावना करनी हो उसे पदाय भारत मे जैन धर्म का उदय सैन्धव युग मे ही प्रारम्भ हो ध्यान, जिसमे ग्राकार की भावना करनी हो उसे रूपस्थ ध्यान चुका था, लेकिन उसे जनता मे फैलाने का कार्य भगवान और निराकार पाहम चिन्तन को रूप वजित ध्यान कहते महावीर ने छठी शती ई० पू० मे किया ।' प्रारम्भ मे है। पिण्डस्य ध्यान मे स्वय को कल्याणगुण युक्त मानने जैन और शाक्त धर्म में कर्मकाण्ड का प्रभाव था और वाले मन्त्र मण्डल को निम्न शक्तिया; शाकिनी और ये दोनों धर्म अत्यन्त सरल थे लेकिन परवर्ती काल मे योगिनिया प्रभावित नहीं कर सकती। पदस्थ ध्यान विधि शाक्तधर्म मे तन्त्रवाद का उदय हा जिसने लगभग सभी में हिन्दुप्रों की मन्त्र शास्त्र पद्वति को स्वीकार कर लिया भारतीय धर्मों को प्रभावित किया। जैनधर्म भी तन्त्र- प्रतीत होता है। जिसका वर्णन इस प्रकार है;-नाभि वाद के प्रभाव से अधुरा नही रह सका । जिस प्रकार स्थान में सोलह दली में षोडस स्वर मात्राएँ, हृदय स्थान शाक्त-धर्म का तंत्र सम्बन्धी विस्तृत साहित्य मिलता है में चौबीस दलों में मध्य कणिका के साथ में पच्चीस अक्षर उसी प्रकार जैन धर्म मे भी तन्त्रो और मन्त्रों की कमी और मूल पंकज मैं अ, क, च, ट, त,ह, य, श, आदि नहीं हैं।
वर्णाष्टक बनाकर मातृका का ध्यान किया जाय । जो पिछले वर्षों में मुझे कुछ जैन मन्दिरों के दर्शन का व्यक्ति मातृका ध्यान को सिद्ध कर लेता है उसे नष्ट लाभ मिला। अपनी यात्रा के दौरान जब में रणकपुर
पदार्थों का स्वतः भान हो जाता है। इसके पश्चात् नाभिजन मन्दिर देखने पहुंचा तो गर्भ गृह के द्वार के निकट
स्कन्द के नीचे अष्ट दल पद्म की भावना करके उसमें एक देवी प्रतिमा देखने को मिली जिसे सरस्वती की
वर्णाष्टक बनाकर प्रत्येक दल की सन्धि में माया प्रणव प्रतिमा मानकर पूजा की जाती है। उस समय मेरे मन
के साथ 'अर्हत्' पद बनाकर हुस्व, दीर्घ, प्लुत उच्चार से मे यह विचार उठा कि जैन मन्दिर में सरस्वती प्रतिमा नाभि, हृदय, कंठ प्रादि स्थानो को सुषुम्ना मार्ग से अपने कैसे ? इसलिये मैंने इसी प्राशय से जैनग्रन्थों एवं पत्र
जीव को उर्ध्वगामी करना चाहिये जिससे अन्तरात्मा का पत्रिकामों का अध्ययन प्रारम्भ किया। इनमें कुछ सामग्री
में नारी शोधन होता है ऐसा विचार करें। तत्पश्चात् षोडशदल मिली और ऐसा लगा कि जैन धर्म भी शाक्त विचारधारा ब्रह्म में सुधाप्लावित अपनी अन्तरात्मा को सोलह विद्या से प्रभावित है। क्योकि यदि जैन शासन मे तीर्थडुर देवियो के साथ सोलह दलों में बिठाकर स्वयं को अमृतविषयक ध्यान-योग का अध्ययन किया जाय तो ज्ञात भाव मिल रहा है ऐसा सोचे । अन्त मे ध्यान के प्रावेश होता है कि जैन प्राचार्यों ने हिन्दुओं को मंत्र-शास्त्र में 'सोऽहम्' 'सोऽहम्' शब्द से अपने को प्रर्हत् रूप में
१. मजूमदार तथा पुसाल्कर, वैदिक एज, पृ० १८६-७ २. वही। ३. मार्डन रिव्यू, जुन १९३२.
४. हेमचन्द्र, योगशास्त्र, सप्तम प्रकाश, २ लोक २७-२८ तथा मष्टम प्रकाश में श्लोक ५।