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प्रोम् महम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २६ किरण २
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
वीर-निर्वाण सवत २५०२, वि० म० २०३२
अप्रैल-जन १९७६
श्री पुरुदेव स्तुति अभक्त्वा यं नैव व्रजति कृतपुण्योऽपि कुशम्, कठोरः पाशोऽय भवति बलवान् कर्मजनितः । इतिवार्ध वर्ष क्षधित इव बभ्राम भवन,
श्रिये जायेतासौ प्रथमजिनदेवः पुरुप.तः ॥५॥ भावार्थ-कर्मपाश बहुत दृढ़ होता है । पुण्यवान् भी तत्कर्म फल निबेरे विना कुशल को प्राप्त नहीं कर पाता; मानो, यही सूचित करते हुए जो प्राधे वर्ष प्रमाण समयावधि क्षधित रहकर भुवन में विहार करते रहे, वह प्रथम जिनेश्वर श्री पुरुदेव श्री वृद्धिक र हों।
प्रभो! स्वामिन ! नाथ! त्रिभवनपते! मुक्तिकमलापरिष्वंगश्लाघ्य ! स्वसयम । निजात्मैंकरसिक ।। सहस्त्राच्छच्छन्दः स्तुतिशिखरिणी यस्य विमला
श्रियं जायेतासो प्रथमजिनदेवः पुरुपतिः ॥८॥ भावार्थ-हे प्रभो ! हे स्वामिन ! हे नाथ ! हे त्रिभवनपते ! हे मुक्तिलक्ष्मी समालिगन से श्लाघनीय ! स्वसमय ! हे अपने प्रात्मा में एकमात्र ध्यानस्थ ! इत्यादि सहस्त्रों प्रच्छे छन्दोवाक्यों से जिनकी स्तुतिशिखरिणी का विमलज्ञान किया जाता है वह प्रथम जिनेन्द्र भगवान् श्री पुश्वेव श्री वृद्धिकारक हों।