________________
६०, वर्ष २६, कि० १
अनेकान्त
परम्परा मे प्राचार्य उमास्वाति का प्रशमरतिप्रकरण योगसम्बन्धी निरूपण है। संस्कृत का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें जैन तत्त्वज्ञान, कर्म मिद्धान्त प्राकृत ग्रन्थ कार्तिकेयानुप्रेक्षा पर भट्टारक शुभचन्द्र ने पौर साधुओं व गृहस्थो के प्राचार का सरल व सुन्दर संस्कृत टीया (ई. १५५६) की रचना की है। शैली में वर्णन है। हरिभद्रसरि ने इस पर टीका लिखी जैन प्राचार्यों व विद्वानो द्वारा भक्तिकाव्य की परम्परा है। अमृतचन्द्रसूरि (ई० ६६८ के आसपास ) कृत पुरुषार्थ- मे अनेक रचनाएँ रची गई, जिनमे प्राचार्य ममन्तभद्र का सिद्धयुपाय, वीरनन्दी (ई० १११५ के लगभग) कृत स्वयम्भूम्तोत्र, प्राचार्य सिद्धमेन कृत बत्तोसियां, विद्यानन्दी पाचारसार, सोमप्रभसूरि (१२-१३ शती) कृत सिन्दूर- पात्रकेशरी (ई० ५-६) कृत बहत्वाचनमस्कार स्तोत्र, प्रकर, शृंगारवैराग्यतरगिणी का विशिष्ट स्थान है। मानतुंगाचार्य (वि० ७वी) कन भक्तामरस्तोत्र, भट्ट
इसी तरह रत्नकरण्डथावकाचार (समन्तभद्र या अकलंक कृत प्रकलकस्तोत्र; बप्पिट्टि (ई० ७४३.८३८) योगीन्द्र कृत), अमितगति (ई. १००० के लगभग) कत चतुर्विशति जिनस्तोत्र, धनंजय (वि०८-६वीशती) कृत कृत श्रावकाचार, प्राशाधर कृत सागारधर्मामृत एवं विषापहारस्तोत्र; गुणभद्र (वी शती) कृत प्रात्मानुप्रध्यात्मरहस्य (ई० १२३६); गुण भूषण (१४-१५ शासन; हेमचन्द्र (१२वी शती) कन वीतरागस्तोत्र; शती) कृत श्रावकाचार, १७वी शती मे अकबर के राज्य- शुभचन्द्र प्रथम (१२वी शती) कृत ज्ञानार्णव; अमितगति काल में राजमल्ल द्वारा रचित लाटीसंहिता का स्थान (वि० १०५०) कृत सुभाषितरत्नमन्दोह; अहंदास भी कम महत्वपूर्ण नहीं कहा ज सकता ।
(१३वी शती) कत भव्यजनकण्ठाभरण; सोमप्रभ रचित टेमचन्द (१२वी शती) कृत योगशास्त्र में भी मनि मक्तिमावलि. GETREE AMETHER farazfs व श्रावक के धर्मों का तथा योग सम्बन्धी विषयों का रचित होलानाला मोर शिवा
रचित प्रश्नोत्तररत्नमाला और दिवाकर मुनि (१५वी शती)
नि निरूपण है।
रचित शृगार वैराग्यतरगिणी विशिष्ट स्थान रखते है। संरकृत में प्राचार सम्बन्धी और प्रसगवश योग का
पौराणिक काव्यों में रविषेण (ई० ६७६) कृत पद्यभी वर्णन करने वाला ग्रन्थ ज्ञानार्णव भी एक विशिष्ट
पुराण, जिनसेन ( ई०७८३) कृत हरिवंशपुराण, सकलकोति ग्रन्थ है जिसके रचयिता थी शुभचन्द्र (१२वी शती) (वि० १४५०-१५१०) का हरिवणपुराण, शुभचन्द्र
(१५५१ ई.) कृत पाण्डवाराण, मलवारी देवप्रभ ध्यान व योग सम्बन्धी संस्कृत ग्रन्थों की रचना भी
सूरिकृत पाण्डव चरित्र, जिनसेन तथा उनके जैन प्राचार्या ने की। पूज्यपाद कृत योगविषयक दो शिष्य गणभद्र (८-६वी शती) कृत महापराण (पादि संस्कृत रचनाएँ है - इष्टोपदेश, समाधिशतक । प्राचार्य
पुराण उत्तर पूगण), हेमचन्द्र कृत त्रिषष्टिशलाकापष हरिभद्र ने योगबिन्दुसमुच्चय मे जैन योग का विस्तार से चरित्र, पडित प्राशावर (१३४६-१४१४ ई०) कृत वर्णन किया है। हरिभद्र ने जैन परम्परा के योगसम्बन्धी महाप राणचरित विशेष उल्लेखनीय है। विचारो को कुछ नये रूप में प्रस्तुत तो किया ही है, साथ चरितकाव्यो को परम्परा में जटासिंह नन्दो (७-८ ही वैदिक व बौद्ध परम्परासम्मत योगधाराओ से उसका ई.) ने वराङ्गचरित, वीरनन्दी (ई० १०वी शती) मेल बैठाया है। योगदृष्टिसमुच्चय पर स्वय हरिभद्र कृत ने चन्द्रप्रभचरितम्, प्रसग (१०वी शती) ने शान्तिनाथतथा यशोविजयगणि कृत टीका प्राप्त है। यशोविजय जी चरित, वादिराज (१०वी शती) ने पार्श्वनाथचरित, ने योगसम्बन्धी चार द्वात्रिशिकार भी लिखी है। गुणभद्र महासेन (११वी शती) ने प्रदयुम्नचरित, हेमचन्द्र कृत प्रात्मानुशासन (हवीशती), अमितगति कृत सुभाषित- (१२वी शती) ने कुमारपालचरित, गुणभद्र द्वितीय रत्नसदोह (१०.११वी शती) तथा इन्ही की दूसरी रचना (१२वीं शती) ने धन्य कुमारचरित, धर्म कुमार(१३वी शती) योगसार है जिनमे नैतिक व प्राध्यात्मिक उपदेश भी है। ने गालिभद्र चरित, जिनपाल उपाध्याय ने सन्तकुमारचरित,
प्रा. हेमचन्द्र (१२वी शती) कृत योगशास्त्र मे भी (अप्रकाशित), मलधारी देवप्रभ ने पाण्डवपरित व मृगा.