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६२, वर्ष २६, कि०१
अनेकान्त कोश श्रीधरसेन (१३-१४ ई.) कृत विश्वलोचनकोश ज्योतिषपटल, श्रीधर' (दसवी शती का प्रन्तिम भाग) (मुक्तावलिकोश), जिनदतसूरि के शिष्य प्रमरचन्द्र कृत कृत गणितसार ब ज्योतिनिविधि, प्रज्ञातकर्तृक चन्द्रोएकाक्षरनाममाला नामक ग्रन्थ कोश-साहित्य की रचना मीलन, जिनसेनसूरि के पुत्र मल्लिषेण (ई० १०४३) कृत परम्परा मे विशिष्ट स्थान रखते है।
पायसद्भाव, उदयप्रभदेव (ई० १२२०) कृत पारम्भव्याकरण साहित्य की रचना करने वाल जैन प्राचार्यों सिद्धि (या व्यवहारचर्या), पद्मप्रभसूरि (वि० १२९४) व विद्वानी में जनेन्द्र व्याकरण के रचयिता प्रा. देवनन्दी कृत भुवनदीपक, महेन्द्रसूरि (शक स० १२६२) कृत पूज्यपाव (ई० ४१३-४५५), जैनेन्द्र व्याकरण के परि- यन्त्रराज, हेमप्रभ (१४वी शती का प्रथम चरण) कृत बधित सस्करण के रूप मे रचित शब्दार्णव के रचयिता त्रैलोक्य प्रकाश नामक ग्रन्थ अनुपम महत्व के है गुणनन्दी (१०वी शती), शब्दार्णवचन्द्रिका के रचयिता भद्रबाहु के वचनों के आधार पर निर्मित भद्रबाहसोमदेव (शक स० ११२७) जनेन्द्रव्याकरण को महावृत्ति संहिता (६-६ शती के मध्य) भी जन ज्योतिषमाहित्य की के रचयिता अभयनन्दी (ई० ७५०), शाकटायनव्याकरण विशिष्ट कृति है। तथा अमोघवृत्ति के रचयिता प्राचार्य पल्यकोति (शक देश व विदेशों के विभिन्न ग्रन्थागारो और विशिष्ट सं ७३६-७८६), क्रियारत्नसमुच्चय के कर्ता श्रीगणरत्न व्यक्तियो के स्वामित्व मे विद्यमान समस्त ग्रन्थो और (ई. १३४३-१४१८), हेमशब्दानुशासन के रचयिता प्राचीन हस्तलिखित पण्डुलिपियो की गणना की जाय तो श्री हेमचन्द्र (१२वी शनी), तथा कातरूपमाला के जैन प्राचार्यो व विद्वानो द्वारा रचित सस्कृत कृतियो की रचयिता श्री भावचन्द्र पैवेद्य (१४वीं शती) के नाम संख्या एक लाख के पास-पास पहुच जाती है। भारत उल्लेखनीय है।
सरकार को चाहिए कि वह ऐसे अप्रकाशित ग्रन्थों के गणित व ज्योतिष शास्त्र पर अनेक जैन प्राचार्यों व प्रकाशन में सहयोग दे और साथ ही उन समस्त ग्रन्थों विद्वानो ने अपनो लेखनी उठाई और संस्कृत साहित्य को की सूचिया (Catalogues) प्रकाशित करावे ताकि सभी अनुपम देन दी।
___तक प्रकाश मे न पाई कृतियो का परिचय विश्व के महावीराचार्य (ई० ८५०) कृत गणितसार मग्रह व अनुसधित्सुमो एवं विद्वानो को प्राप्त हो गके।
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वेदों में अरिष्टनेमि भारत के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में भी भगवान अरिष्टनेमि की चर्चा मिलती है। वे भी वैदिक युग के महापुरुष थे। यजर्वद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि-इन तीनो तीर्थङ्करों के नाम मिलते हैं।
यथा स्वास्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति न पूषा विश्वेवा। स्वस्ति न स्ताक्षयों अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बहस्पतिर्दधातु ॥
-ऋग्वेद १/६/८६/६, सामवेद ६/३ ऋग्वेद में एक अन्य स्थल पर अरिष्टनेमि को धर्मधरीण कहा है
तं वां रथ वयमद्या हवेम स्तौ मैर शिवना सुविताय नव्यम् । अरिष्टनेमि परधामियानं विद्यामेषं वजनं जीरदानुम् ॥
- ऋग्वेद, द्वि अष्टक, २/४/१८१४१० १. डा० दत्त तथा सिंह के मत से श्रीधर का समय विद्वान ऐसे भी है जो महावीराचार्य के बाद श्रीधर
७५० ई. के लगभग है। दीक्षित का कहना है कि का होना मानते है। (द्रष्टव्य भारतीय ज्योतिष का श्रीधर महावीराचार्य के पहने हुए है । महावीराचार्य इतिहास-डा. गोरखप्रसाद, पृ० १८२-१९३) का समय दीक्षित जी ६५० ई. मानते है। कुछ