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५४, वर्ष २६, कि०१
अनेकान्त
मन्दिर की बाह्य भित्ति पर तीन पंक्तियों में देव करते दर्शाया गया है। कुछ रथिकामों में चतुर्भज मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मूर्ति विज्ञान की दृष्टि से केवल लक्ष्मी (३ मूर्तियाँ) एवं विमुख ब्रह्माणी की भी मूर्तियाँ निचली दो पंक्तियों की मूर्तिया ही महत्वपूर्ण है, क्योकि निरूपित हैं। सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि जैन यक्षी ऊपरी पक्ति मे केवल विद्याधर युगल, गन्धर्व एवं किन्नर अम्बिका (२ मूर्तियाँ) एव तीर्थकर मूर्तियो के अतिरिक्त की उडडीयमान प्राकृतियां चित्रित है। मध्य की पक्ति में भित्ति एवं अन्य भागों की गभी मूर्तिया हिन्दू देवकूल के विभिन्न देव यगलों, लक्ष्मी एव तीर्थंकरों की लॉछन (या देवतानों से सम्बन्धित एवं प्रभावित रही है । शिखर के लक्षण) रहित स्थानक एव ध्यानस्थ मूर्तियां उत्कीणित समीप उत्तरी एवं दक्षिणी भागो पर कामक्रिया में रत दो है। उल्लेखनीय है कि जैन परम्परा मे २४ तीर्थकरो की युगलो का अकन प्राप्त होता है जो पूरी तरह जैन अलग२ पहचान के लिए स्वतन्त्र लाछनो की कल्पना की परम्परा को अवमानना है । ऐसे परम्परा विरुद्ध चित्रणो गई थी। सभी तीर्थको के लक्षणो के निर्धारण का कार्य का कारण सम्भवतः उसी स्थल के हिन्दू मन्दिरों पर सातवीं-पाठवीं शती ई० मे पूरा हो गया था। मतियो मे प्राप्त कामक्रिया मे मम्बन्धित (लक्ष्मण मन्दिर) चित्रणों तोथंकरों को या तो कायोत्सर्ग मे दोनो भजाए नीचे लट- का प्रभाव और जैन मन्दिरों के निर्माण में हिन्दू शिल्पियो काए सीधे खडा प्रदर्शित किया जाता है, या फिर ध्यान का कार्यरत रहा होना होगा। उल्लेखनीय है कि जैन मुद्रा मे पालथी मारकर पर्यकासन मे विराजमान । निचली परम्परा मे किमो भी देवता को कभी अपनी शक्ति के पक्ति मे प्रष्ट दिक्पालों (इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, साथ नही निरूपित किया गया है, फिर शक्ति के साथ वायु, कुबेर, ईशान्,) वेवयुगलों (शक्ति के साथ प्रालिगन और वह भी मालिगन की मुद्रा में चित्रण का प्रश्न ही मुद्रा मे) यक्षी अम्बिका (२२ वे तीर्थकर नेमिनाथ की नहीं उठता। यक्षी), तीर्थकरो एवं चतुर्भुज शिव, विष्ण, ब्रह्मा और गर्भगृह की भित्ति पर प्रष्ट दिक्पालों, तीर्थकरो, बाहुविश्वप्रसिद्ध अप्सरामो की मूर्तिया चित्रित है । बली एवं चतुर्भुज शिव (- मूर्तियाँ) उत्कीर्ण है। वृषभ
दोनो पक्तियों की त्रिभंग में खड़ी स्वतत्र एवं देवयुगल बाहन से युक्त चतुर्भुज शिव की भुजायो में सामान्यतः प्राकृतियो मे देवता जहा चतुर्भुज है, वही उनकी शक्ति नाग, त्रिशूल, कमडल एव फल प्रदर्शित है। बाह्य भित्ति सदैव द्विभुजा है। देवताओं की शक्तियो की एक भुजा की तीर्थकर मूर्तियो के विपरीत गर्भगृह की भित्ति की आलिंगन की मुद्रा में प्रदर्शित है और दूसरी मे दर्पण या तीर्थकर मूर्तियों लाछन, प्रष्टप्रातिहार्य एव यक्ष-यक्षी युगल पर स्थित है। स्पष्ट है कि विभिन्न देवताओं के साथ से युक्त है । गर्म गृह की भित्ति पर कुल ६ तीर्थङ्कर मूतियाँ पारंपरिक शक्तियो, (यथा, विष्णु के साथ लक्ष्मी, ब्रह्मा के चित्रित है, जिनमें से केवल ४ मे ही लॉछन स्पष्ट है। साथ ब्रह्माणी), के स्थान पर सामान्य एव व्यक्तिगत अष्टप्रातिहार्य एव यक्ष-यक्षी युगल सभी उदाहरणो मे विशिष्टतानो से रहित देवियो को प्रामूर्तित किया गया प्रदर्शित है। उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त तीर्थङ्कर मूर्तिया है । भित्ति के अतिरिक्त देवयुगलो की कुछ मूर्तियाँ प्रतिमालाक्षणिक दृष्टि से पूर्ण विकसित तीर्थङ्कर मूर्तियाँ अर्धमंडप की छत के समीप एव मन्दिर के कुछ अन्य है। तीर्थ कर मूर्तियो के परिकर मे प्राकलित अष्टप्रातिभागो पर भी उत्कीणं है। देवयुगलो मे शिव ( हार्य निम्न है . .-सिंहासन, दिव्यतरु, त्रिछत्र, प्रभामडल, मूर्तियों), अग्नि (१ मूति) एव कुबेर के अतिरिक्त राम- देवदुन्दुभि, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि एव चामरयुग्म । सीता (कपिमुख हनुमान के साथ) और बलराम-रेवती लगभभग आठवी-नवी शती में ही प्रत्येक तीर्थकर के के चित्रण भी प्राप्त होते है। रामकथा से सम्बन्धित शासन देवता होते है । उक्त मूर्तियो में लांछनों के प्राधार एक विशिष्ट दृश्य मन्दिर के दक्षिणी शिखर के ममीप पर केवल अभिनन्दन (चौथे तीर्थकर), सुमतिनाथ (५वें उत्कीर्ण है । दृश्य मे क्लॉतमुख सीता को अशोकवाटिका तीर्थंकर) या मुनिसुव्रत (२०वें तीर्थकर), चन्द्रप्रभ (८वे में बैठे और हनुमान से राम की मुद्रिका एवं सन्देश प्राप्त तीर्थकर) एवं महावीर (२४वें तीर्थकर) की ही पहचान