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तीर्थकर महावीर की ही नहीं, किन्तु संसार के जीवों को सन्मार्ग पर लगाने के समान गम्भीर तथा एक योजन तक फैलने वाली दिम्य अथवा उनकी सच्ची सेवा करने की एक विशेष लगन ध्वनि के द्वारा शासन की परम्पग चलने के लिए उपदेश लगी। दीन दुखियों की पुकार उनके हृदय में घर कर दिया, प्रथम ही भगवान् महावीर ने प्राचागग का उपदेश गई और इसलिए उन्होंने, प्रब और अधिक समय तक दिया, पश्चात् मूत्रकृताग, स्थानाग, समवायांग, व्याख्यागहवास को उचित न समझ कर, जबकि चन्द्रमा उत्तरा प्रज्ञप्ति प्रग, ज्ञातृधर्म कथाग, श्रावकाध्ययनाग, अन्तकृद्द. फाल्गुणी नक्षत्र पर ही विद्यमान था, तब मगसिर बदी शाग, अनुत्तरोपपादिक दशाग, प्रश्न व्याकरणाग और दशमी के दिन जगल का रास्ता लिया।
विपाक सूत्राग इन ग्यारह अगों का उपदेश दिया। तदनन्तर मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार
विहार करते हुए पाप जिस-जिस स्थान पर पहचते ज्ञानरूपी महानेत्रों को धारण करने वाले भगवान ने
थे और वहाँ मापके उपदेश के लिए जो महती सभा जड़ती बारह वर्ष तक अनशन प्रादिक बारह प्रकार का लप
थी पौर जिसे जैन साहित्य में 'समवमरण' नाम से उल्लेकिया। तत्पश्चात् गुणसमूहरूपी परिग्रह को धारण
खित किया गया है, उसकी एक खास विशेषता यह होती करने वाले श्री वर्द्धमान स्वामी विहार करते हुए ऋजुकूला
थी कि उमका द्वार सबके लिए खुला रहता था । पशुपक्षी नदी के तट पर स्थित जम्भिक गाव के समीप पहुंचे।
तक भी प्राकृष्ट होकर वहा पहुच जाते थे, जाति-पाति, वहा बैशाख सुदी दशमी के दिन दो दिन के उपवास का
छु पाछुत और ऊंचनीच का उस में कोई भेद नही था, सब नियम कर वे शाल वृक्ष के समीप स्थित शिलातल पर मनुष्य एक ही मनुष्य जाति में परिगणित होते थे और प्रातापन योग में प्रारूढ़ हुए। उसी समय जब कि चन्द्रमा
उक्त प्रकार के भेदभाव को भूलकर आपस मे प्रेम के साथ उत्तराफाल्गुणी नक्षत्र में स्थित था, तब शुक्ल ध्यान को
रल-मिलकर बैठते और धर्म श्रवण करते थे-मानो सब धारण करने वाले वर्धमान जिनेन्द्र घातिया कमों के समूह
एक ही पिता की सन्तान हो। इस प्रादर्श से समवसरण को नष्टकर केवलज्ञान का प्राप्त हुए।
में भगवान महावीर की समता और उदारता मूर्तिमान
नजर पाती थी और वे लोग तो उसमे प्रवेश पाकर बेहद सर्वज्ञ होने के पश्चात् भगवान् महावीर छियासठ दिन
गन्तुष्ट होते थे जो समाज के अत्याचारो से पीड़ित थे, तक मौन से बिहार करते हुए जगप्रसिद्ध राजगृह नगर
जिन्हे कभी धर्मश्रवण का, शास्त्रो के अध्ययन का, अपने पाये" । वहा भगवान् के प्रान का वृत्तान्त जान कर चागे
विकाम का और उच्च संस्कृति को प्राप्त करने का प्रवपोर से आने वाले सुरों और असुरो से जगत इस प्रकार भर गया जिस प्रकार मानो जिनेन्द्रदेव के गुणो से ही
सर ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी ही
नही समझे जाते थे। इसके सिवाय समवसरण की भूमि भर गया हो। इस प्रकार, जब बारह कोठो में बारह गण
में प्रवेश करते ही भगवान महावीर के सामीप्य से जीवा जिनेन्द्र भगवान के चारो ओर प्रदक्षिणा रूप से परिक्रमा,
का बैर-भाव दूर हो जाता था, क्रूर जन्नु भी सौम्य भाव स्तुति भोर नमस्कार कर विद्यमान थे, तब समस्त पदार्थो
बन जाते थे और उनका जाति विरोध तक मिट जाता को प्रत्यक्ष देखन वाल एव राग, द्वेष और मोह इन तीनो
था। इमी में सर्प को नकूल या मयूर के पास बैठने में दोषो का क्षय करने वाल पापनाशक श्री जिनेन्द्र देवस
कोई भय नहीं होता था, चहा बिना किसी सकोच के गौतम गणधर न तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए प्रश्न
बिल्ली का प्रालिगन करता था, गौ और सिह मिलकर किया“ । तदनन्तर भगवान् महावार प्रभु ने श्रावण मास
एक ही माद में जल पीते थे और मृग शावक खुशी स के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के प्रात. काल के समय अभिजित मिह शावक के साथ खलता था। यह सब महावार के नक्षत्र में समस्त सशयो को छदने वाले, दुन्दुभि के शब्द योगबल का माहात्म्य था। उनके प्रात्मा म हिसा को २४. हरिवश पुराण, २०५१ ।
२७. हरिवश पुराण, २०६० । २५. जैन हरिवंश पुराण, २०५६ ।
२८. हरिवंश पुराण, २१८७-८६ । २६. जैन हरिवश पुराण, २१५७-५६ ।