Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 47
________________ आयुर्वेद के ज्ञाता जैनाचार्य L] डा. हरिश्चन्द्र जैन, जामनगर पायर्वेद भारतवर्ष में चिकित्मा-शास्त्र से सम्बन्धित प्रायुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी थे अवश्य किन्तु उनका विषय है। इसका प्रारभ जैन परम्परा के अनुसार भगवान कोई व्यवस्थित विवरण नही मिलता है। भगवान महावीर ऋषभदेव के समय से होता है क्योकि भगवान ऋषभदेव के १७० वर्ष उपरान्त अनेक जन प्राचार्य हये जिनमे अनेक ने इस देश के लोगों के लिए जिन जीवन-यापन के साधनों की आयुर्वेद साहित्य के मनीषी थे। जैन ग्रन्थो मे और सकेत किया था. उनमे गो से जीवन की रक्षा करना प्रायुर्वेद का महत्व प्रतिपादित किया गया है किन्तु इसकी भी सम्मिलित था। अतः आयुर्वेद का प्रारभ उन्ही के समय गणना पापश्रुती में की है यह एक प्राश्चर्य है । स्थानाग से प्रारभ हुअा है ऐसा मानना होगा। मूत्र में प्रायुर्वेद के पाठ अंगो का नामोल्लेख याज प्राप्त उस समय का कोई लिग्वित साहित्य उपलब्ध नही होता है । प्राचारग सूत्र मे १६ रोगो का नामोल्लेख है । किन्तु भगवान ऋषभदेव से महावीर तक इस प्रकार उपलब्ध है इनकी समानता वैदिक पायर्वेद ग्रन्थो से है। का ज्ञान ( oral evangelism ) मौखिक उपदेशो के द्वारा स्थानाग सत्र में रोगोत्पत्ति के कारणो पर प्रकाश हमको प्राप्त हुप्रा है। डाला गया है और रोगोत्पत्ति के ह कारण बताये गये है। मोक्षमार्ग के लिये स्वास्थ्य ठीक रखना आवश्यक है। जैन मनीषी धर्ममाधन के लिये शरीर रक्षा को बहुत अत. रोगो से बचने का उपाय प्रायुर्वेद कहलाया। इस महत्त्व देते थे । बृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में कहा है :विषय पर उस समय तक स्वतत्र ग्रंथ नही लिखे गये, किन्तु शरीरं धर्मसंयुक्त रक्षणीय प्रयत्नतः। जब ज्ञान को लिपिवद्ध करने की परम्परा चली तो शरीराच्छ्वते धर्मः पर्वतात् सलिल यथा ॥ आयुर्वेद पर स्वतत्र तथा अन्य ग्रन्थो मे प्रमंगवश प्रायुर्वद अर्थात् जैसे पर्वत से जल प्रवाहित होता है वैसे ही का वर्णन अाज प्राप्त है। शरीर से धर्म प्रवाहित होता है । अतएव धर्मयुक्त शरीर भागम के अनुसार १४ पूर्षों में प्राणवाद नामक पूर्व की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये । में आयुर्वेद पाठ प्रकार का है ऐसा सकेत मिलता है, अतः शरीर रक्षा में सावधान जैन साधु कदाचित जिससे मष्टांग प्रायुर्वेद का तात्पर्य है । गोमटसार, जिसकी रोगग्रस्त हो तो वे व्याधियो के उपचार की कला विधिवत् रचना १ हजार वर्ष पूर्व हुई है ऐमा सकेत है । इस प्रकार जानते थे । श्वेताम्बर भागमा यथा अग, उपाग, भूल, छेद ग्रादि मे निशीथ चर्षी मे वैद्यक शास्त्र के पडितो को दृष्टिपाठी यत्र तत्र प्रायुर्वेद के अश उपलब्ध होते है। कहा है। जैन ग्रन्थों में अनेक वैद्यो का वर्णन मिलता है भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५६६ वर्ष पूर्व जो काय-चिकित्सा तथा शल्यचिकित्मा में प्रति निपूण होते हमा था। उनके शिष्य गणधर कहलाते थे जिन्हे अन्य थे। युद्ध में भी वे जाकर शल्य चिकित्सा करते थे ऐसा शास्त्रों के साथ मायुर्वेद का ज्ञान था । दिगम्बर परम्परा के वर्णन प्राप्त होता है। आयुर्वेद साहित्य के जैन मनीषी अनुसार प्राचार्य पुष्पदत एव भूतबलि ने पटव डागम नामक साधु एव गृहस्थ दोनो वाँ कध। ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ ज्येष्ठ सुदी पचमी को हरिणेगमेपी द्वारा महावीर के गर्भ का अपहरण एक पूर्ण हुमा था। प्रत यह निश्चित है कि इससे पूर्व का जैन अपूर्व तथा चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से विचारणीय माहित्य उपलब्ध नहीं है। भगवान महावीर के पूर्व घटना है। प्राचार्य पदमनदी ने अपनी पविशतिका मे

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