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जैन संस्कृत नाटकों को कथावस्तु : एक विवेचन
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है। उनकी उन कृतियों का प्रादर्श उनसे पूर्ववर्ती सम्कृत एक बहत बड़ी विशेषता तो यह है कि इनमे दिव्य कोटि नाटककार रहे है। अतः कथावस्तु भी पूर्णतया उनसे के पात्रो से लेकर पशु-पक्षियों को भी पात्र रूप म प्रभावित जान पडता है; यथा रामचन्द्र के मल्लिका- उपस्थित किया गया है। मत्य निन्द्र, करुणावमापन मकरद पर भवभूति के मालतीमाधव का प्रभाव स्पष्ट व शामामृत नाटक म मा किया गया है। है।नयचन्द्र (१३वीं १४वी शताब्दी का सधिकाल) का रंभामंजरी सट्रक कर्परमंजरी के प्रादर्श पर रचा गया
इन नाटको में सत्य, हिमा, प्रायं. शा. पोपकार,
शाति, दान, संसार की नश्वरता, दंग-भक्ति प्रादि सद. इस प्रकार जैन नाटककारों द्वारा लिये गये सस्कृत
गुणो का मानवजीवन में समावेश शिवाया गया है। रूपकों को कथानक के आधार पर चार वर्गों में रखा जा
मोहगजपराजय नाटक में प्रसा व मन् नियों को पात्र सकता है। कुछ रूपको म गौणरूप से जिनमे गौण रूप
रूप में उपस्थित करके असत वृत्तियो पर गत वृत्तियो की में जैन धर्म के प्रचार को लिया है. वे नाटककार नाटक
विजय दिखाई गई है। चारिनिर्माण हो मी चनायो की कलात्मकता को अक्षुण्ण रख पाए है। जिन नाटक
का उद्देश्य रहा है। इस प्रकार की कृतियां ग नाटककाग कारों ने समसामयिक कथानक को आधार बनाकर अपने
द्वाग लोकदृष्टि में प्राध्यात्मिक मनलता का समावेश रूपकों की रचना की है, वे तत्कालीन इतिहाम, समाज
किया गया है। व धर्म की दशा पर यथार्थ प्रकाश डाल पाए है। समाज
बापूलाल साजना की चलो पा रही कुरीतियो व अंधविश्वागो को दूर करने
सी-८, यूनिवष्टिी क्वार्टर्म, तथा समाज सुधार को लक्ष्य बनाकर भी कुछ नाटककागे
दुर्गा नर्सरी राड, ने अपने नाटको की रचना की है। जैन नाटककारो की
उदयपुर (राज.)
श्रमण मुनियों की परम्परा उत्तरकालीन वैदिक परम्परा में वातरशनामुनि पूर्ववत सम्मान पाते हुए ऊर्ध्वरेता (ब्रह्मचारी) और श्रमण नामों से भी अभिहित होने लगे थे। वातरशना हवा ऋषयः श्रमणाः ऊर्ध्वमंथिनो वभवः
-तैत्तिरीय प्रारण्यक ११, २६, ७. पद्मपुराण (६, २१२) के अनुसार तप का नाम ही श्रम है । अत जो राजा राज्य का परित्याग कर तपस्या से अपना सम्बध जोड़ लेता है वह श्रमण कालाने लगता है । मुनियो की श्रमण सज्ञा इतनी लोक-प्रचलित हुई कि आगे के समस्त वैदिक, जैन और बौद्ध साहित्य में प्रायः इन मुनिया का श्रमण और उनकी तपस्या व अन्य साधनामों का श्रामण्य नामो से ही उल्लेख पाया जाता है।
७. मध्यकालीन मस्कृत नाटक, पृ. १८६ । ८. डा० पीटसन और रामचन्द्र दीनानाथ सपादित,
निर्णयसागर से १८८६ ई० में प्रकाशित । द्र० प्राकृत
साहित्य का इतिहास, ले. जगदीशचन्द्र जैन, पृ ६३३-३५ ।