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जैन संस्कृत नाटकों की कथावस्तु : एक विवेचन
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तथा लोकानुरञ्जन के लिए सदैव घर-घर मे प्रतिष्ठित मत्री वस्तुपाल और तेजपाल थे। एक बार तेजपाल उस रहा है।
मन्दिर में दर्शनार्थ गये । मुनिवर जयसिंह की इच्छानुसार रघुविलास-पाठ अंको के इस नाटक मे राम वन- बड़ा दान उस मदिर के लिए दिया। मुनिवर ने प्रसन्न गमन से रावणवध तक की रामकथा को प्रस्तुत किया होकर उन मत्रीद्वय को प्रशस्ति लिखी। हम्मीरमदमर्दन गया है। इसके कथानक मे कवि कई स्थलो पर नई-नई नाटक उनके स्वामी राजा वीरधवल के माथ मत्रीद्वय योजनामो को लेकर चला है। इसके कथानक मे एक की उदार कीति को काब्धात्मक प्रतिष्ठा देने के लिए विशिष्ट तत्त्व सर्वाधिक समुन्नत दिखाई देता है, जो लिखा गया। परवर्ती युग मे विशेष रूप से छायानाटको मे अपनाया इम कृति का ऐतिहासिक महत्त्व तो है ही, साथ ही गया । छायापात्रों की इतने बड़े पैमाने पर कल्पना अन्यत्र तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक जीवन का यथार्थ चित्रण विरल ही है। विशुद्ध नकली पात्र को ही दूसरे पात्र भी इसमे प्राप्त होता है। समग्र रचना मुद्राराक्षस से की छायारूप मे प्रस्तुत करना जितना सौष्ठवपूर्ण इम प्रभावित है। मुद्राराक्षस की भाति इसमे झठे सवाद, नाटक मे है, उतना अन्यत्र कम ही दृष्टिगोचर होता है। कपटवेशधारण, गुप्तचरो का जाल, मत्री व मत्रणा का
वनमाला-रामचन्द्र की यह अप्राप्य नाटिका है, सातिशय माहात्म्य, राजापो का सघ बनाना आदि कई जिसके उद्धरण नाट्यदर्पण में प्राप्त होते है। राजा नल
समान तत्त्व प्राप्त होते हैं। इसमे कवि ने युवको को नायक है और दमयन्ती उसकी विवाहिता पत्नी, जो अब
राष्ट्र रक्षा का सदेश दिया हैमहादेवी पद पर अधिष्ठित है। नल का प्रेम किमी अन्य
त्रस्तेषु तेषु सुभटेषु विभौच भग्ने, कन्या से चल रहा है।
भग्नासु कोतिषु निरीक्ष्य जनं भयार्तम् । मैथिलीकल्याण-हस्तिमल्ल (१३वी शताब्दी का
यो मित्रबान्धववधुजनवारितोऽपि, उत्तरार्द्ध व १४वी का प्रारम्भ) के ५ अकों के इस नाटक
वलगत्यरीन प्रति रसेन स एव वीरः ।। ३.१५ ।। में सीता व राम के विवाह की कथा है ।
मुद्रित कुमुदचन्द्र-धनदेव के पौत्र तथा पद्मचन्द्र के समसामयिक कथानक कुछ नाटककारों ने अपनी कृतियो में समसामयिक
. पुत्र यशःचन्द्र की रचना मुद्रितकुमुदचन्द्र एक प्रकरण कथानक को अपनाया है। इस तरह की कृतियों में जय
है। यह विख्यात धार्मिक शास्त्रार्थ का अवलबन करके सिंह सूरि का हम्मीरमदमदन, यशःचन्द्र का मुद्रित कुमुद
लिखा गया है जो ११२४ ई० मे श्वेताम्बर मुनि देवसूरि चन्द्र पौर यशःपाल का मोहराजपराजय (प्रतीक नाटक)
व दिगम्बर मुनि कुमुदचन्द्र के बीच हुआ था। इसमें बाद पादि ऐसे ही नाटक है । ये कृतिया तत्कालीन ऐतिहासिक,
मे कुमुदचन्द्र का मुखमुद्रण हो गया। इस प्रकार इसका सामाजिक व धार्मिक जीवन का विशद चित्रण उपस्थित
नाम सार्थक है। करती है।
यह नाटक ममसामयिक जैनधर्म की स्थिति पर हम्मीरमवमर्वन-जयसिंहसरि त हम्मीरमदमदन प्रकाश डालता है। ५ अकों का वीररसात्मक नाटक है। जयसिंह भड़ौच के मोहराजपराजय'-जन कवियों ने भी कृष्ण मिश्र मुनिसुव्रत मन्दिर के प्राचार्य थे। उस समय गुजरात मे के प्रबोधचन्द्रीय का अनुसरण करके प्रतीक नाटकों को घोल्का (घवलपुर) के राजा वीरधवल थे और उसके धर्मप्रचार के लिए उपयोगी समझा। यशःपालदेव की १. हम्मीरमदमर्दन का प्रकाशन गायकवाड़ ओरियण्टल २. काशी से प्रकाशित, वीर स० २४३२ द्र० बलदेव सीरीज से हुआ है। द्र० मध्यकालीन संस्कृत नाटक,
उपाध्याय कृत संस्कृत साहित्य का इतिहास,
पृ०६०६। पृ. २८०.२८५ और कीयकृत संस्कृत नाटक (उदय
३. गायकवाह प्रोरियण्टल मीरीज (ग्रथाक ८), बड़ौदा भानुसिंह कृत हिन्दी अनुवाद), पृ० २६२ से २६४ । से प्रकाशित, १९३०।