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वेदों में जन-संस्कृति के गंजते स्वर
मैरा मन नही, जिस तरह से जिन अपनी आत्मा मे शान्त- मरुत्वं न वृषभं वावधानमकवारि दिव्य शासनमिन्द्र भाव से रहे है, उसी तरह से शान्तभाव से मै रहना विश्वा साहम वसे नूतनायोग्रासदो दा मिहताह्वयमः । चाहता है। यहा शान्तिमति निनदेवों को उपमान के रूप
- ऋग्वेद, ३६, ७-३-११ । में प्रस्तुत किया गया है।
समिद्धस्य प्ररमहसोऽवन्दे तवश्रिय वृषभो गम्भवान सिम कुलादि बीजं सर्वेषामाद्यो विगलवाहनः । मध्वोविध्यस । चक्षष्मांश्च यशस्वी चाभिचन्द्रोऽथ प्रसेनजित् ।।
- ऋग्वेदे, ४ अ० ४ व० ६-४-१.२२ । मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुलसत्तमाः । प्राविषि सायकानि धन्वाह निष्क यजतं, विश्वअष्टमो मरुदेव्यां तु, नाभेर्जात उरुकमः ।।
रूपम् अहं न्निदं दयसे विश्व भवभुवं न वा प्रागीयो दर्शयन वर्त्म वीराणां, सुरासुर-नमस्कृतः रुद्रत्वादस्ति। नीतित्रयाणां कर्ता यो, युगादौ प्रथमो जिन ॥
- ऋग्वेदे अ० २०५२७ । ---मनुस्मृती
स्वम्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदा । सब मे प्रथम कुल के ग्रादिवीज विमलवाहन हा ।। स्वस्ति नस्ताों अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। उनके पश्चात् चक्षुष्मान् पशम्पी अमितचन्द्र और प्रमेनजित
___--- यजुर्वेद अ० २५, मन्त्र १६ । कुलकर हुए।
तरणिरित्सपासति बोज पुर ध्याः यजा प्राव इन्द्राभरतक्षेत्र में छठवे कुलकर ममदेव और सातवें नाभि- पुरुहूतं नमो नर्मोगरा नेमिस्तष्टव शुद्ध । राजा हुए । साथ ही सातवे कुलकर श्री नाभिराजा की
ऋग्वेदे २० प्र०, ५ अ०.३ च० २७ । पत्नी मरुदेवी से पाठवे कुनकर विशालाकृति पभ हुए। उपर्युक्त मन्त्रो मे तीर्थडुर-वाचक शब्द जंन सस्कृति वीरों के मार्गभूति, सुगसुरो के द्वारा वन्दनीय और तीन के आदि तीर्थडुर श्री ऋपभदेव जी की महिमा का गान प्रकार की नीति के कर्ता-धर्ता तथा मार्गदर्शक इस युग के करते हुए जैन सस्कृति को वेदो से भी प्राचीन प्रमाणित प्रारम्भ में ही प्रथम जिन (ऋपभ) हुए।
कर रहे है।
[पृ० ३५ का शेषांश तथा निर्ग्रन्थ श्रमणिका का उल्लेख हुअा है। अतः साथ ही चारुदत्त एव प्रतिज्ञायौगन्धरायण मे भी प्रतीत होता है कि भास इसके अतिरिक्त जैन- प्राप्त होते है। सम्प्रदायों से अपरिचित थे अथवा अन्य सम्प्रदाय (६) जैन श्रमणकों की बान केवल विदूषक कहता है। स्थिति मे ही नही पाए थे।
जबकि बौद्ध श्रमणक का उल्लेख अविमारक एव (३) चीवरधारी रक्तपटो का जो उल्लेख प्राप्त होता है
चारुदत्त में विदूषक, चेटक तथा सवाहक करता है वे सम्भवत बौद्ध ही थे।
तो प्रतिज्ञायौगन्धरायण मे रुमण्वान् प्रच्छन्न रूप में (४) बात-बात मे 'उपासक' सम्बोधन देने वाले सघचारी
श्रमणक के वेश मे ग्राता है। शाक्यश्रमणक का भी उल्लेख किया गया है तथा
तात्पर्य यह है कि भास-साहित्य में श्रमणकों को वाहे उनके चारित्रिक पतन की ओर भी सकेत किया प्रतिष्ठित स्थान तो प्राप्त नही हग्रा हो और अधिकाश में गया है जो मजदूरनियो से अपनी कामपिपासा उन्हे विद्वेष भावना से परिहाम का भाजन बनाया गया हो शान्त करते है। परन्तु साथ ही निर्वेद से प्रवजित तथापि तद्युगीन ब्राह्मण समाज मे श्रमणको की स्थिति पर
होनेवाले भिक्षु का भी सकेत प्राप्त होता है। विशेष प्रकाश पड़ता है जो म्पहणीय और प्रत्याज्य है । (५) जैन श्रमणको के सन्दर्भ केवल 'प्रविमारक' में ही प्राप्त वस्तुतः इन संकेतात्मक विवरणो से उस युग की धार्मिक
होते है। परन्तु बौद्ध श्रमणको के उल्लेख इसके स्थिति की वास्तविकता भी प्रकट होती है। 00