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४०, वर्ष २६, कि०१
अनेकान्त
मोहराज पराजय ऐसी ही रचना है। इसकी रचना रचयिता देवचन्द्र, हेमचन्द्र के शिष्य थे। इसका प्रथम ११७४ से ११७११ ई. के बीच हुई, जब गुजरात के कवि अभिनय अजितनाथ के वमनोत्सव पर हुप्रा था। इसके का प्राश्रयदाता अजयदेव चक्रवर्ती शासक था। इसका अन्त मे कुमारपाल के अर्णोराज की विजय का उल्लेख प्रथम अभिनय कुमारविहार में महावीर-यात्रा के महोत्सव है। इसकी रचना ११५० ई० के लगभग हुई थी। पर हुमा था। इसकी कथावस्तु का मार कवि ने इस
जैन कधानक विषयक नाटक प्रकार दिया है
कुछ नाटककारो ने जैन कथासाहित्य की पद्यापद्म कुमारपालनपतिर्जज स चन्द्रान्वयी. इतिवृत्तात्मक सरणि पर या जैन पुराणों के कथाजैन धर्ममवाप्य पापशमनं श्रीहेमचन्द्राद्गरोः। नको को प्राधार बनाकर अपने नाटकों की रचना निर्वीराधनमुज्झता विदधता जूतादिनिवास, की है। ये कृतियां है रामचन्द्र का कौमुदीमित्रानंद, येन केन भटेन मोहनपतिजिग्ये जगत्कंटकः ॥१.४॥ रामभद्र मुनि का प्रबुद्ध रोहिणेय, मेघाप्रभाचार्य का
(अर्थात) राजा कमारपाल ने जैनधर्म के श्रीहेमचन्द्र धर्मादय, बालचन्द्र सूरि का करुणावज्रायुद्ध, हस्तिसे पापगमन करने वाले जन-धर्म की दीक्षा ली। उन्होने मल्ल का अञ्जना वनाय व मुभद्रानाटिका, ब्रह्म सूरि अपने राज्य से युनादि का निर्वासन कर दिया था और का ज्योतिप्रभाकल्याण और नेमिनार का शामामृत । इन जगत्कटक मोह नामक राजा पर विजय प्राप्त की थी। रूपको मे कही मख्य रूप मेनो कही गौण रूप से जैन धर्म पांच अको के इस नाटक में कमारपाल, हेमचन्द्र तथा
के प्रचार का काम अपनाया गया है। विदूषक प्रादि तो मनुष्य पात्र है; शेष पुण्यकेतु, विवेक,
कौमुदीमित्रानंद'-... रामचन्द्र ने दस अकों के अपने व्यवमायसागर, ज्ञानदर्पण, सदाचार, माहराज, सदागम,
इस प्रकरण में मित्रानद को नायक व कौमुदी को नायिका
बनाया है। नायक मित्रानद जिनसेन नामक बनिये का रज, काम, जनमनोवृत्ति, धर्मचिन्ता, शांति, नीतिमंजरी,
पुत्र है और नायिका का पिता कुलपति है। कृपामजरी आदि कितने ही पात्र सत्व असत् गुणो के ।
इस प्रकरण के विषय में कीथ को सम्मति हैप्रतीक हैं।
"यह कृति सर्वथा नीरस है। हा, इसकी एक मात्र रोचकता इस नाटक का कई दृष्टियों से बहुत महत्त्व है । यह
विस्मयकारी घटनाओं की योजना में हैं, जो सामाजिकों ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक उपादेय है। कुमारपाल
को अदभुत रग का उद्रेक करती है।" इसमे जादू, मन्त्रके समय में जैनधर्म के प्रचार के लिए जो व्यवस्था की
तत्र, औषधिप्रयोग, नर-बलि व शव में प्राणसचार प्रादि गई थी, उसका उत्कृष्ट वर्णन इसमें प्राप्त होता है । इस
अतिप्राकृत तत्त्व प्राप्त होते है। कापालिक को दूषितरचना का प्रधान उद्देश्य चरित्रनिर्माण है। इस कृति मे
वृत्तियो का निदर्शन, न्यायालय के धोखा व मिथ्या व्यवलोकदृष्टि से आध्यात्मिक मजुलता का समावेश किया
हार का प्रदर्शन, चोरो-डाको के कामो का वर्णन प्रादि गया है। इसमे यशःपालदेव को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई
तत्कालीन सामाजिक दशा पर प्रकाश डालते है । पशुबलि है। विण्टरनित्स ने भी इस नाटक की भूरि-भूरि प्रशसा प्रादि बा विरोध किया गया हैको है कि इसमे तत्कालीन समाज, राजनीति व धर्म पर पुण्यप्रसूतजन्मानश्चण्डालव्यालसङ्गताम् । अच्छा प्रकाश डाला गया है।
मांसरक्तमयों देवाः कि बलि स्पहयालवः ।। चन्द्रप्रभाविजयप्रकरण' -पाठ अको के इस नाटक के कहीं-कही सदुपदेश भी दिये गये है१. गुजरात के इतिहास के विषय में प्राप्त अभिलेखों रेचर, पृ. ६४४ । प्रति जैसलमेर के भडारमे उपलब्ध । तथा अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर यह नाटक ३. जैन प्रात्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित । महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है।
४ मध्यकालीन संस्कृत नाटक, पृ. १८३ से १८५ तक । -~- कीथ कृत सस्कृत ड्रामा (अनूदित), पृ. २७०. ५ सस्कृत ड्रामा (उदयभानुसिंह कृत अनुवाद),प. २७४ । २. कृष्णमाचार्य कृत हिस्ट्री प्राफ क्लासिकल संस्कृत लिट- ६. कौमुदीमित्रानद ६.१३ ।