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भास के श्रमणक
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घोर चाहे भने सकेत किया हो, परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की साध्वी भी नंगी कभी नही रहती है। कम से कम वह एक वस्त्र तो पारण करती हो है पुन उपर्युक्त सन्दर्भ मे 'अन्ध' शब्द का क्या अर्थ होगा ? प्रत 'rrive मणिश्रा' की 'नग्नान्धश्रमणिका' छाया न करते हुए 'निर्यन्यधमणिका' छाया करना अधिक उचित है, जिसका तात्पर्य होगा कि नायक के विरह मे सन्तप्त होती बेचारी राजकुमारी दिगम्बर सम्प्रदाय की मणिका ही बन गयी है, अर्थात नियमका बनने पर भी क्या वह जीवित है ?
यहां विशेष ध्यातव्य यह है कि अविमारक रूपक के उपर्युक्त तीनों स्थलो पर श्रमणिका अथवा श्रमणक का विदूषक ही स्मरण करता है। प्रतीत होता है कवि इनके प्रति अधिक गम्भीर नही है ।
भास के प्रतिज्ञायौगन्धरायण रूपक के तृतीयाक मे श्रमणक नामक पात्र रंगमच पर प्रवेश करता है और वह विदूषक तथा उन्मत्तक के वेश में उपस्थिन यौगन्धरायण के कृत्रिम टंटे को शान्त करने का प्रयास करता है । वस्तुतः यह श्रमणक भी वास्तविक नही है । उदयन का अन्य मन्त्री रुमण्वान् ही श्रमणक के वेश में उपस्थित होता है । ग्रविमारक में कहे पूर्वोक्त विवरणानुगार श्रमणक नग्नक होगा और नाट्यशास्त्र, दशरूपक इत्यादि के द्वारा सकेत न करने पर भी यह ग्रसम्भव प्रतीत होता है कि उस काल मे प्रेक्षको के समक्ष कोई पात्र रगमच पर निवस्त्र उतरे । स्पष्ट ही प्रतिज्ञायौगन्धरायण का श्रमणक दिगम्बर श्रमणक नही हो सकता और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भासोक्त वैदिक भ्रमणको मे एक तो विमारक के दिगम्बर जैन है तथा दूसरे अवैदिक श्रमणक बौद्ध है । प्रतिज्ञायोगन्यरागण का धमक बौद्ध प्रतीत होता है, क्योकि वह विदूषक को 'बह्मणाउस' (ब्राह्मणोपासक )
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कहना है । यह सर्वविदित है कि बौद्ध साधु बात-बात मे 'उपासक' सम्बोधन देते थे। यही नहीं, विदूषक उनके मतानुयायियो को 'सधधारिणो' (संघचारिणः) भी कहता ' है। सचारी के रूप में बौद्ध ही प्रसिद्ध है, इसमें सन्देह नही । इससे स्पष्ट है कि प्रतिज्ञायोन्धरायण का श्रमणक बौद्ध भिक्षु था। अविमारक में भी पहले चीवरधारी रक्तपट का उल्लेख हुआ है। सम्भवत वहाँ भी बौद्ध की ओर ही सकेत है । वैसे स्वय भास ने अपने चारुदत्त रूपक मे शाक्य श्रमणक का उल्लेख किया है," जहाँ विदूषक कहता है कि "मजदूरनी के इशारा करने पर शाक्यश्रमणक के ममान मुझे भी नीद नहीं था रही है।"
१. वही, पृ ६६८८
२. दूरध्वान वर्ष युद्ध गम्यदेशादिविश्वनम् ।
सरोप भोजन स्वान सुतवानम् ॥ प्रवरग्रहणादीनि प्रत्यक्षाणि न निति । नाधिकारिवध क्वापि त्याज्यमावश्यक न च ॥ दशरूपक, ३, ३४-३६ ।
खुदा कसमकरोदिवि सक्किमणो नि ण लभामि ।
यहा सन्देह का स्थान नहीं है। चतुर्भाणी के गमान शाक्य भिक्षुओं की कामलोलुपता पर भी फक्ती कसी गई है । चारुदत्त रूपक को आत्मसात् करने पर भी यह वाक्य मृच्छकटिक में प्राप्त नही होता। चारुदत्त के ही द्वितीयांक
संवाहक के निर्वेद से प्रव्रजित होने का संकेत प्राप्त होता है जिसकी मदमस्त मंगल हस्ती से वसन्तसेना का सेवक रक्षा करता है। इस प्रसंग का पल्लवित रूप मृच्छकटिक मे भी प्राप्त होता है । परन्तु वहाँ हाथी का नाम 'खुण्टमोटक दिया गया है जो प्रवन्तिप्रदेश की मालवी तथा हिन्दी मे भी 'वूटामोड़' के रूप में आज पहचाना जा सकता है, अर्थात् वह मदमस्त हाथी जो अपने ग्रालान रूप खूटो को भी मोडकर उखाड़ दे ग्रथवा तोड़ दे । मालवा के धार जिले मे खटपला ( खुटपल्लि अथवा गुटपन) जैसे अब भी ग्राम के नाम उपलब्ध होते है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि(१) भाग की दृष्टि में श्रमणक अवैदिक है । (२) भाम- साहित्य मे दिगम्बर
३ भासनाटकच क्रम्, पृ. ८६ । ४. वही पृष्ठ १२॥
५. वही, पृष्ठ २२८ ।
६. वही, पृष्ठ २२०-२१ ।
सम्प्रदाय के श्रमणक (शेष पृ० ३७ पर)