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३४, वर्ष २६, कि० १
अनेकान्त
सशक हो कह उठते है......
जब विदूषक का परिचय देता है तब नलिनिका कहती है "प्रथितयशसा भाससौमिल्लकविपुत्रादीनां प्रबन्धानतिक्रम्य - "इस ब्राह्मण को, शहर को दुकान के बरामदे मे, पहले वर्तमानकवेः कालिगसस्य क्रियायां कय बहमान: ?" देखा है।"
परन्तु परवर्ती होने पर भी कालिदास-साहित्य मे 'पा, दिपुरुवो ण परापणालिदे अयं ब्राह्मणो। ब्राह्मणेतर सन्दर्भ दुर्लभ ही है जबकि भाम-माहित्य मे वे तब विदूषक कहता है कि यज्ञोपवीत ब्राह्मण की पहचान है असुलभ नहीं है। बुद्ध और महावीर के उपदेशो के पश्चात् और चीवर रक्तपट को। यदि वस्त्र त्याग दू तो श्रमणक
हो जाऊँ। श्रमण शब्द प्रायः इन्ही के द्वारा प्रवृत्त सम्प्रदायो से सबद्ध हो गया। किसी भी स्थिति मे, भास बुद्ध और महावीर
"ग्राम भोदि ! जण्णोपवीदेण बह्मणो, चीवरेण रत्तपडो। के पश्चात् ही हुए और इसलिए भास के रूपको मे इन
जदि वत्यं जाद वत्य अवणाम,
अवर्णमि, समणपो होमि।" दोनों के सन्दर्भ मे ही श्रमणक शब्द का प्रयोग हुआ है।
यहाँ भासने अपने युगमे प्रचलित भारतीय तीनों प्रधान प्रतिज्ञायोगन्धरायण, प्रविमारक तथा चारुदन नामक
धर्मों के अनुयायियों के मामान्य पहचान-चिह्न दे दिए है। भास के रूपकों मे थमणक अथवा श्रमणिका के उल्लेख
चीवरधारी प्रायः बौद्ध होते थे। अत. रक्तपट से तात्पर्य उपलब्ध होते है।
बौद्ध ही लेना चाहिए। वैसे रक्तपट किमी अज्ञात अथवा मर्वप्रथम हमे यह देखना है कि साधारणतया श्रमणक
लुप्त पापड का नाम भी हो सकता है। श्रमणक वस्त्रहीन से भास का क्या तात्पर्य है ? 'प्रविमारक' के द्वितीय होते थे । स्पष्ट ही यहा दिगम्बर जैनों की ओर ही संकेत अक मे विदूषक से विनोद करती हुई चेटी उसे कहती है प्रतीत होता है। इसी प्राधार पर डा० ए० डी० पुसालकर कि वह भोजन के लिए निमन्त्रित करने किसी ब्राह्मण का
यह निर्णय लेते है कि चकि श्रमण क से भास, दिगम्बर अन्वेषण कर रही है। तब विदूषक कहता है- 'प्ररी!
सम्प्रदाय का ही अर्थ लेते है इससे स्पष्ट है कि श्वेतामैं कौन हूं? क्या श्रमणक हू ?" चेटी कहती है -"तू तो
म्बरों के उदय से पूर्व अर्थात् ई० पू० ३०० से पूर्व ही अवैदिक है।" विदूषक कहता है-"मैं अवैदिक कैसे हुआ?
भास का समय होना चाहिए, क्योकि उन्हें श्वेताम्बरों
का ज्ञान नहीं था। सुन तो ! रामायण नामक नाट्यशास्त्र है न, एक वर्ष
अविमारक रूपक के ही चौथे अक" मे नायक, विदूषक परा होने से पहले ही मैने उसके पांच इलोक पढ नायिका (करगी) विषयक प्रश्न पूछता है.लिए है।"
किन्न स्मरति मां कुरङ्गी? (क्या कुरंगी मेरा विदूषक-भोटि ग्रह को, समणग्रो।
स्मरण नही करती) चेटी-तुव किल प्रवेदियो ।
विदूषक कहता है --किष्णु सु जीवदि जगन्धस्सविदूषक --किस्स ग्रहं प्रवेदिनो सुणाहि दाव। मणिग्रा।
अस्थि रामानणं णाम णसत्यं । तस्सि श्री सी० पार० देवपर इसकी सस्कृत छाया इस प्रकार पचसुलोपा असम्पुण्णे संवच्छरे पुमए करते है.-"किन्न खलु जीवति नग्नान्धधमणिका।" स्पष्ट पठिदा।
ही यहां विरहिणी नायिका के लिए 'श्रमणिका' शब्द का इस विवरण से स्पष्ट है कि भाम की दृष्टि मे श्रम- प्रयोग हया है जिसका तात्पर्य तपस्विनी अथवा बेचारी णक प्रवैदिक होते है। श्रमण क ब्राह्मणेतर ही हो सकते हो सकता है। अर्थ होगा-'बेचारी जीवित भी है ?" है, फिर चाहे वे बौद्ध हो, चाहे जैन अथवा अन्य कोई। तपस्विनी के अर्थ में यहा श्रमणिक शब्द का प्रयोग
"प्रविमारक" के पाँचवे अक में नायक नलिनिका को किया गया है । जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय की, १. मालविकाग्निमित्र. प्रस्तावना ।
४. डा० ए० डी० पुमालकर, भास (भारतीय विद्याभवन २. भासनाटकचक्रम् (श्री मी० आर० देवधर द्वारा
बम्बई, प्रथम सस्करण १६४३), पृष्ठ २०८ । सम्पादित का १९६२ ई० का सस्करण), पृष्ठ ११६। ५. भामनाटकचक्रम्, पृष्ठ १६१ । ३. वही, प्रविमारक, पृष्ठ १६६ ।