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भास के श्रमणक
- डा. राजपुरोहित
श्रमण वस्तुतः पाश्रमवासी थे जो स्वय श्रम करते थे, के अनुयायियो ने भी इसमे परिवद्धि की है। तपस्या करते थे । ममाज में श्रमण-सस्था का उदय बौद्ध सम्राट अशोक ने (बौद्ध) सघ ब्राह्मण, ग्राजीविक तथा जनधर्म से पूर्व वैदिकयुग मे ही हो चुका था ।' निर्गन्थ इत्यादि का एक साथ पथक-पृथक् उल्लेख करने के बहदारण्यकानिषद् (४/३/२२) मे श्रमणो का सर्वप्रथम साथ ही बौद्धो से इतर ब्राह्मण-श्रमणो का एक-साथ उल्लेख ज्ञात होता है परन्तु परवर्तीकाल मे, बौद्ध और जलेर कियाFORE ही ये बाता तोही जैन-सम्प्रदायो ने इस शब्द को विशेषतः स्वीकार किया है।
ब्राह्मणेतर भी थे। सम्भवत ये 'समण' आजीविक थे जिन्हे बुद्ध को प्राय. समण गोतम कहा गया । वहाँ यह साधारण अशोक ने गया के निकट बराबर की गृहाएँ दान में दी भिक्षाटन करने वाले का अर्थ देने लगा । सुत्त तथा विनयपिटक में ऐसे भिक्ष समणो की संस्था ही बन गयी थी।
ईमवी पूर्व दूसरी शती में श्रमण अथवा श्रमणदास
तीसरी शती में श्रमण प्रथवा परन्त समय से पूर्व अपने उत्तरदायित्व से पलायन करने नाम भी जात नीतीकिसान की नियनी के के कारण इनके प्रति ब्राह्माणो की सद्भावना नही थी।
पार स उपलब्ध, ईसवी की तीसरी-चौथो शती की ग्वरोष्ठी वस्तुतः ब्राह्मण ग्रन्यो के श्रमण सच्ची त्यागवृत्ति मे
में उत्कीर्ण अभिलेखो मे श्रमण तथा धामणेर का उल्लेख महान् थे। वैदिक-साहित्य के आलोक में उपलब्ध श्रमण
प्राप्त होता है। 'सामणेर' (श्रामणेर) का तात्पर्य नोपरम्परा को अवैदिक सिद्ध करना' वस्तुत. उस शब्द तथा
सिखिया भिक्खु किया गया है। श्रमणगोष्ठ के उल्लेख परम्परा-विषयक तथ्यदृष्टि के साथ अनाचार एव अन्या
भी प्राप्त होते है । नुकरण है।
यह सर्वविदित है कि भास कालिदास के अादरणीय 'पाइय-सद्द-महणवो' (पृष्ठ-८६५) के अनुसार
और उनसे पूर्ववर्ती दक्ष एवं प्रथिन रूपवकार हुए है।
र पाँच प्रकार के धमण होते है -निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस,
चौदह रत्नो के ममान उनके चौदह उपलब्ध नाटक संपूर्ण गरुक तथा आजीवक।
परवर्ती नाट्य-परम्पग के वस्तु, प्रयोग तथा कल्पना की निग्गथ-सरक-तावम-गेरुय आजीव-पचहा समणा' दष्टि से उपजीव्य बन गए है। सम्पूर्ण मस्कृत नाट्यस्पष्ट ही जैन, बौद्ध, ब्राह्मण इत्यादि के साथ ही गोवतिक परम्परा में आज भी भास के समान मंच प्रयोग-मुलभ श्वावतिक, दिशावतिक, प्राजीवक इत्यादि अनेक श्रमणमार्गी रूपक दुर्लभ ही है। उनके रूपकों में मचीय नाट्य-तत्व साधुओं की परम्परा थी। यह परम्परा बुद्ध तथा महावीर अनायाम उतर पड़े हैं। भास की इमी नाट्य महत्ता के के पूर्व से ही चली आ रही थी और इन दोनो महापुरुपो समक्ष कालिदास भी एक बार अपने रूप की सफलता मे
१. डा. राधाकुमुद मुकर्जी : हिन्दू सभ्यता (हिन्दी ५ डी. सी० सरकार, सलेक्ट इन्स्क्रिप्शन्स, द्वितीय ____ अनुवाद), चतुर्थ सस्करण, पृष्ठ २६८ ।
सस्करण, पृ०६६। प्रशोक का सातवा स्तम्भलेख । २. वही। ३. डा. हरीन्द्रभूषण जैन, भारतीय संस्कृति और श्रमण
६ वही, पृ. ७७ । परम्परा, पृष्ठ १३-१४ ।
७. वही, पृ० २२७ । ४. वही, पृष्ठ १३ पर उद्धृत डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ८. वही, पृ० २४८-४६, ५१-५४ तथा हिन्दू मभ्यता, का मभिमत ।
पृ० २६८।