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रयणसार: स्वाध्यायकी परम्परा में
सम्मान की हिमा का वर्णन "रयणसार" ग्रन्थ की शोभा (के) समान है। शोभा भी है और सुखदायक में अनेक प्रकार से किया गया है। किन्तु रत्नत्रय का भी है तथा लोभी पुरुषो को दान देना होता है सो शव विशद एवं विस्तृत वर्णन न होने से यह ग्रन्थ विशेष रूप अर्थात् मुर्दे की ठठरी की शोभा (के) समान जानना । से पठन-पाठन तथा प्रचार मे नही पाया हो ऐसा प्रतीत शोभा तो होती है, परन्तु मालिक को परम सुखदायक होता है। परन्तु-अन्तः साक्ष्य तथा अन्य विवरणो के प्राधार होती है। इसलिये लोभी पुरुषो को दान देने मे धर्म पर यह निश्चित हो जाता है कि यह ग्रन्थ सुदीर्घ काल नही है। तक पद्यावधि स्वाध्याय को परम्परा में प्रचलित रहा है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक, छठा अधिकार, पृ० १५८)
"रयणसार" नाम की एक अन्य कृति का उल्लेख स्वाध्याय की यह परम्परा दिगम्बर माम्नाय मे दक्षिण भारत के भण्डारो की प्रन्थ-मूची मे हस्तलिखित बराबर बनी रही है । इसलिये कुछ विद्वानो का यह अन्धो में किया गया है। श्री दिगम्बर जैन मठ, चित्तामूर समझना कि "रयणसार" प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचना (जिंजनी), साउप प्रारकाड, मद्रास प्रान्त मे स्थित शास्त्र नहीं है, क्योकि न तो इसकी कोई सस्कृत टीका मिलती भण्डार मे क्रम-सख्या ३६ मे प्राकृत भाषा के "रयणसार" है और न यह पठन-पाठन मे रहा है, भ्रमपूर्ण है। अन्य का नामोल्लेख है और रचयिता का नाम वीरनन्दी पण्डितप्रवर टोडरमल जी के अनन्तर पण्डित दौलतहै, जो सस्कृत टीकाकार प्रतीत होते है। इस टीका की राम जी ने "क्रियाकोष" मे पाठवें पृष्ठ पर "रयणसार" खोज करनी चाहिए । इम टीका के मिल जाने पर विद्वानो की निम्नलिखित गाथा उद्धृत की है जो इस प्रकार हैका यह भ्रम पूर्ण रूप से दूर हो जाएगा कि प्राचार्य गण-वय-सम-पडिमा दाणं जलगालण च प्रणयमियं । कुन्दकुन्द की इस रचना पर कोई सस्कृत टीका नहीं। दसणणाण-चरितं किरिया तंवण्ण सावया मणिया ॥७॥ मिलती । हिन्दी पद्यानुवाद की खोज मबसे पहले मैने ही इसका पद्यानुवाद है : की थी। यद्यपि पद्य-कर्ता का नाम अभी तक जानकारी गण कहिये प्रष्टमल जु गुणा, वय कहिये व्रत द्वादश गुणा । मे नही पाया है। किन्तु इमसे यह तो स्पष्ट है कि तव कहिये तप बारह भेद, सम कहिये समष्टि प्रभेव ॥७० लगभग मत्ररहवी शताब्दी मे ग्यणमार के स्वाध्याय की पडिमा नाम प्रतिज्ञा सही, ते एकादश भेव जलही।.. परम्परा अवश्य थी।
उक्त मूल गाथामे "तव" शब्द नहीं है, किन्तु पद्यानुवाद अठारहवी शताब्दी मे पण्डितप्रवर टोडरमल जी ने, मे उसका उल्लेख है। मशोधित तथा मेरे द्वारा मम्पादित जिनका समय १७३६ई. कहा जाता है, अपने सुप्रसिद्ध "रयणसार" मे शुद्ध गाथा इस प्रकार है प्राध्यात्मिक ग्रन्थ 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक" में दान के प्रसग गुण-बय-तव-सम-पडिमा-दाण-जल गासणं प्रणथमियं में "रयणसार" का प्रमाण देकर अपने विषय का वर्णन बसण-णाण-चरित किरिया तेवग्ण सावण मणिया ॥१३७।। किया है। उनके ही शब्दो म
प्रष्ट मूलगुण, बारह व्रत, बारह तप, ममता भाव, "तथा लोभी पुरुष देने योग्य पात्र नहीं है, क्यों कि ।
ग्यारह प्रतिमाए, चार दान, पानी छानकर पीना, रात्रि गोभी नाना प्रमत्य उक्तिया करके उगते किचित भला में भोजन नही करना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मम्यक. नही करते । भला तो तब होता है जब इसके दान को चारित्र ये श्रावक को अपन क्रियाए कही गई है। महायता से वह धर्म माधन करे; परन्तु वह तो उल्टा पाप यह उल्लेखनीय है कि "जन क्रियाकोष" का रचनारूप प्रवर्तता है । पाप के सहायक का भला कैसे होगा? काल १७३० ई० है । उन्नीसवी शताब्दी में प० सदासुखयहो "रयणसार" शास्त्र में कहा है
दास जी ने इस परम्परा को अक्षुण्ण बनाया और इसका सप्पुरिसाण वाण कप्पतरूण फलाणं सोह वा। सक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करते हुए उल्लेख किया है . लोहोण बाण माविमाणसोहा सवस्स जाणेह ॥ २६ ॥ "श्री कुन्दकुन्दादि अनेक मनि निग्रन्थ वीतरागी अग अर्थ :--सत्पुरुषो को दान देना कल्पवृक्षो के फलो को के वस्तुनि का ज्ञानी होते भए तथा उमास्वामी भए ऐसे पाप