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तीन अप्रकाशित रचनाएं
तन मंदिर चेतन घर वासी ज्ञान दृष्टि घट अंतर भासी। समुझे यह पर यह गुण मेरा मदिर दाण होइ तिहि वेरा ।।६।। अष्ट महामद पुर के साथी एक कर्म कूदिसी के हाथी। इन्ह को त्याग कर जो कोई गज दातार कहावै सोई ।।७।। मन तुरंग चढ़ि ज्ञानी दौरे लखे तुरंग और में प्रौरे । निज दुग को निज रूप गहावै वहै तुरगम दान कहावै ।।८।। अविनासी कुल के गुण गावै कुल कलत्र सद्बुद्धि कहावें। बुद्धि प्रतीता धार ना फली वहै कलत्र दान की सैली ।।६।। ब्रह्म विलास तेल खलि माया मिश्र पिड तिल नाम कहाया। मिश्र पिड रूप गहि दुविधा मानी दुविधा त सोइ तिल दानी ॥१०॥ जो विवहार अवस्था होइ अंतर भूमि कहावै सोई। तजि व्योहार जो निहचे माने भूमिदान की विधि सो जाने ।।११।। सकल ध्यान रथ चढ़ सयाना मूकति पथ को कर पयाना ।
रहै अजोग योग सौ यागी वहै महारथ रथ का त्यागी ।।१२।। दोहा-ए दश दान ज मै कहै । शिव मासन मूल ।
ज्ञानवंत सूछिम गहै मूढ़ विचारे शूल ।।१३।। एई हित वित जाण को एई अहित अजान । राग रहित विधि सहित हित अहित प्रान को पान ।।१४।।
।। इति दाणदसी समाप्ता ।।
अथ वर्तमान स्तोत्र सजल जलधिसेतुर्दुखविध्वंसहेतुनिहतमकरकेतुर्वारितानष्टहेतुः । क्वणित समरहेतुर्नष्टनिःशेषधातुर्जयति जगति चन्द्रो श्रीवर्द्धमानो जिनेन्द्रो ॥१॥ समयसदनकर्ता सार ससार हा सकल भुवन भर्ता भूरि कल्याण धर्ता । परम सुख समर्ता सर्व मदेह हा जयति जगति चन्द्रो श्री वर्द्धमानो जिनेन्द्रो ।।२।। कुगतिपथभनेता मोक्षमार्गस्य नेता प्रकृति गहणहता तत्त्वसंघात नेता। गगन गमनगता मुक्तिरामाभिकता ।। जयति ।।३।। सजल जलद नादो निजिताशेषवादा यति चरनुतपादो वस्तु तत्वं जगादो । जयति भविकपादोऽनेककोपाग्निकदो ।। जयति ॥४॥ प्रबलबलविसालो मुक्तिकाता रसालो विमल गुणमरालो नित्यकल्लोलमालो। विगत सरणशीलो धारिता नित्यसालो ।। जयति ।।५।। मदन मद विदारी चारु चारित्रधारी नरक गति निवारी स्वर्ग मोक्षावतारी। विदित त्रैलोक्यसारी केवलज्ञानधारी ।। जयति० ।।६।। विषय विष विभासो भूरिभाषानिवासो गत भवभयपासो कीर्तिवल्ली निवासो। करण सुख निवासो वर्ण सपूर्ण तासो।। जयति० ॥७॥ वचनरचनधीर: पापलिसमीर: कनकनिकषगौरः करकर्मारिसरः । कलुषदहननीर: पातितानगवीर ।। जयति ॥८॥ ।। इति वर्द्धमान स्तोत्रम् समाप्तम् ।।
भुति कुटीर, १८, कुम्सी माग, विश्वास नगर, साहारा, दिल्ली-१२