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२८, वर्ष २९, कि. १
अनेकान्त संजम-संजमु है व्रत को महि मंडनु संयम है यति मारग को धनु ।
संजमु है सब जोगु को साधनु संयम है पुनि जोतनु को मनु ।। संजमु है परदीन सुमारगु सयमु है सुचि राखण को तनु ।
सजमु थे सुर के सुख पावत संजमु सौ निबहै शिव सौपनु ॥७॥ सप-जा तप थ पद होइ सुरप्पति या तप थे निरवान चढ़ेगी।
जा तप थे क्रम इद्रिनि जीति के जा तप थे अति ध्याण बढ़ेगो॥ जा तप थे परदौन कहै उर अंतर केवल ज्ञान रहैगी।
ता तप को मन साधि रे साधि वृथा कत और उपाधि बढ़ेगी ।।८ प्याग-त्यागत सग परिग्रह को पुनि आदर सौ मुनि दान दये है।
प्रोषध ज्ञान प्रहार अभ सब दै गति चारि के पार भये है ।। पाइ (य) पखारत साधुनि के चरनोदक पावन शीस भये है।
कीरति के जग कीरति गाइ सुरप्पति के सुख जाइ लए है ॥६॥ किचन-पाकिचन कचने ज्यौ कसि क लखि के रुचि सो उर अतर पानत ।
उज्जल ज्ञान में मातम ध्यान में देह सों भिन्न सदा करि जानत ।। जे विधि सौ व्रत को प्रतिपालत ले रत्नत्रय को मन मानत ।
जे जग में जनमें परदौन तिन्हे शिवरूप सदा हम जाणत ॥१०॥ ब्रह्मचर्य-सील के सागर ज्ञान के उजागर नागर चारित्त चित्त धरेगे !
पातुर कै मन के वच के तन के करि लं भवलोक तरेंगे । माया कहै तिन्हि के गुण ले तिन्हि के पद बदन देव करेंगे।
बभ बल तिन्हि के ग्रह सदर ते सिव सुदार जाइ बरंगे ॥११॥ कलसा-जे नर धर्म करै दश लक्षण तत्क्षण ते भव लोक तरेगे।
के समता सब जीवनि सौ परदौन कहै ममिता न गहैगे। ताप तप न कहूं भव तापनि पाप प्रवाहनि में न बहैंग । मौन रहे निरवासन ह पद्मासन हूं धरि ध्यान रहेगे ॥१२॥
॥ इति दशलक्षणीक कवित्त संपूर्ण ।
दाणादसी गो सुवर्ण दासी भवन गज तुरग परधाण । कल कलत्र तिल भूमि रथ ए पुनीत दस दान ||१|| अब इनको विवरन कहौ भावित रूप बखानि ।
अलख रीति अनुभव व था जो समझ सो दानि ।।२।। चौपाई ---- गो कहिए इन्द्री अभिधान वछरा उमग भोग पय पान ।
जो इनके रस मांहि न राचा, सो सवच्छ गोदानी साचा ॥३॥ कनक सुरग अछर वानी तीनों सबद सूवर्ण कहानी । जो त्यागै तीनिहु की साता सो कहिए सुवर्ण को दाता ।।४।। पराधीन पररूप गरासी यो दुर्बद्धि कहावं दासी। ताकी रीति तजै जब ज्ञाता तव दासी दातार विख्याता ॥५॥