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३२ वर्ष २०१
तं भयभीत ज्ञानविज्ञान सम्पन्न परम संजम गुण मण्डित गुरुनि की परिपाटी तं श्रुत का प्रत्युच्छिन्न अर्थ के धारक वीतरागीनि की परम्परा चली भाई तिनमें श्री कुन्दकुन्द स्वामी समयमार, प्रवचनसार, पचास्तिकाय, रयणसार, भ्रष्टपाहुडकू श्रादि लेय अनेक ग्रन्थ रचे ते प्रवार प्रत्यक्ष वांचने, पढने में आये है। इन ग्रन्थति का जो विनयपूर्वक प्राराधन करे सो प्रवचन भक्ति है ।" ( रत्नकरण्ड श्रावका चार, पंचम अधिकार, पृ० २३६ )
यही स्वाध्याय की परम्परा पं० भूधरदास जी के वर्षा समाधान" मे भी लक्षित होती है। निर्मास्य के प्रसंग में प० भूधरदास ने "रसार" का उल्लेख किया है । वर्षा समाधान के पृ० ७६ पर गाथा स० ३२,३३,३५ और ३६ इन चारो के उद्धरण के साथ लिखा हुआ मिलता "जे देवधन के ग्रहण का फल कुन्दकुन्दाचार्य कृत रयणसार विष का है । तथाहि, गाथा
मनेकान्त
इसी प्रकार, पण्डित चम्पालाल कृत "चर्चा सागर " ग्रन्थ विक्रम संवत् १८१० का रचा हुआ मिलता है । इस ग्रन्थ से भी स्पष्ट है कि "रयणसार" की स्वाध्याय-परम्परा सतत प्रचलित रही है। दान के प्रसंग की चर्चा है "इसलिये सत्पुरुषो के लिये दिया हुआ दान तो कल्पवृक्षादिक के सुखो को उत्पन्न करता है और लोभी के लिये दिया हुआ दान ऊपर लिखे अनुसार फल देता है। सो हो रयणसार मे लिखा है-सस्साणं वाण कप्पतरूण फलाण सोहं वा । लोहाणं वा ज विमाणसोहा स जाणेह ||२६|| संशोधित व सम्पादित वर्तमान सस्करण मे यह गाथा इस प्रकार है
सप्पुरिसा ण दाण कप्पतरूण फलाण सोहं वा । लोहोन जण ज विमानसोहा-सर्व जाणे ।। २५ ।। इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर 'रयणासार' का उल्लेख इस प्रकार किया गया है- इसी प्रकार ध्यान धारण करना और सिद्धान्त के रहस्यो का अध्ययन करना मुनियो का मुख्य धर्म है। पूजा और दान के बिना गृहस्थो का धम नहीं है और ध्यान-अध्ययन के बिना मुनियों का धर्म नही है । यहो इसका तात्पर्य है मो ही श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने लिखा है :
दाणेधा मुलं सावयन्मं धागो तेण विना । भाणम्भयणं मुक्तं दमं तं विना तहा सोबि ॥ यह 'रवणासार' की गाथा है। संवाोपित व सम्पादित प्रति में यह गाथा इस प्रकार है
वाणं पूया मुक्ख सावयवम्मेण सावया तेण विना । horthaण मुक्खं जड़-धम्मे तं विणा तहा सो वि ॥ १०
वर्तमान कालमे भी स्वर्गीय मुनिश्री ज्ञानसागर जी महाराज ने 'समयसार' की प्रस्तावना मे 'रयणसार' का प्रमाण देते हुए लिखा है
तथापि "रवणसार" की निम्न (१३१, १३२) गावाम्रो द्वारा श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि परमात्मा (महन्त और सिद्ध) तो स्वसमय है और क्षीणमोह गुणस्थान तक जीव 'परसमय' है । इससे स्पष्ट है कि संयतमम्यदृष्टि स्वसमय' नहीं है, परसमय है ।
इस प्रकार 'रयणसार' के स्वाध्याय की परम्परा १७वी शताब्दी से लेकर आज दिन तक बराबर चालू है । हाल ही क्षु० जिनेन्द्र वर्णों ने अपने 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में पृ० ८४ ( भाग १ ) पर 'ग्रात्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नही होता' शीर्षक के अन्तर्गत 'रयणसार' की निम्नलिखित गाथा का उल्लेख किया है।
नितम्बवलद्धि विना सम्मतवलद्धि णत्थि नियमेण । सम्मत्वलद्धि विणा निव्वाणं णत्थि जिद्दिट्ठ ॥ ६० ॥
अर्थात् निज तत्वोपलब्धि के विना सम्वत्व की उपलब्धि नहीं होती योर सम्ववस्व की उपलब्धि के बिना निर्माण नहीं होता।
उक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि 'रयणसार' प्राचार्य कुन्दकुन्द की ही रचना है और प्राचार्य के अन्य ग्रन्थो की भाँति लगभग चार सौ वर्षों से बराबर 'रयणसार' के पठन-पाठन के उल्लेख तथा प्रमाण मिलते है । प्राध्यात्मिक ग्रन्थो की भाति रयणमार का भी अपना महत्व है पोर कई बातों में इसे प्रमाण रूप मे उद्धृत किया जाता रहा है । अतएव इस बावकर्मप्रधान 'रणसार' को मान्यता बराबर बनी रही है, यह सिद्ध हो जाता है।
शकर घायल मिल के सामने, नीमच (म. प्र. )