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भगवान महावीर तथा श्रमण संस्कृति
तो उसके प्रयोजन मोर कुछ प्राणियों को सुख और कुछ विश्वविद्यालयों मे शोध-प्रबन्धों का विषय बन रही है। को दुःख, प्रादि नाना शंकाएं उत्पन्न होती है और यह व्याकरण मौर कोश कला के क्षेत्र में भी श्रमण पीछे तथ्य उभरता है कि जीव सृष्टिकर्ता की अनुकपा पर ही नही रहे। जैनेन्द्रव्याकरण, शब्दानुशासन (शाकटायन), सदा पाश्रित रहेगा । किन्तु श्रमण संस्कृति हर प्रात्मा को हेमचन्द्राचार्यकृत सिद्धहेमशब्दानुशासन, प्रादि प्राकृत परमात्मा बनने का अधिकार देती है। ऋग्वेद में भी कहा कोश 'पाइयलच्छीनाममाला' और हेमचन्द्र की 'देशी नामगया है
__ माला' प्राज भी सैकडो हिंदी शब्दो की व्युत्पत्ति सिख को प्रद्या वेद क इह प्रवाचेत् ।
करने में सहायक है। कुत अजाता कुत इयं विमृष्टि : (१०-१२६-६)
वास्तुकला के क्षेत्र में श्रमण सस्कृति के प्राज भी (अर्थात् कौन ठीक से जानता है और कौन कह
विद्यमान कुछ प्रमुख कीर्तिस्तभ इस प्रकार है- खजराहो
के जैन मदिर प्राबू के जैन मदिर, श्रवणबेलगोला (ममर सकता है कि यह मृष्टि कहा से उत्पन्न हुई, डा. हीरालाल
के निकट), की गोम्मटेश्वर की ५७ फीट ऊंची एक हजार जैन द्वारा उद्धत)।
वर्ष प्राचीन एक ही शिला को काटकर बनाई गई प्रतिमा, भाषा के क्षेत्र मे श्रमण सस्कृति को यह श्रेय प्राप्त
खडवा के पाम स्थित बड़वानी नामक स्थान के पास है कि उसने बोल-चाल की भाषाओं अथवा लोक भाषाम्रो
वावनगजाजी के नाम से प्रगिद्ध ऋपभदेव की ८४ फीट को ही सदा अपनाया। महावीर ने अपने उपदेश अर्ध
ऊची प्रतिमा जो कि पहाड मे ही उत्कीर्ण की गई है, मागधी मे दिए। प्रर्धमागधी प्राकृत, शौरसेनी प्राकृत चित्तोड का कीर्तिस्तभ, बादामी (दक्षिणी भारत),खडगिरि,
और महाराष्ट्री प्राकृत में विपुल थमण साहित्य की रचना उदयगिरि (उड़ीसा) और ग्वालियर की गुफाए । हुई, जो कि अब धीरे-धीरे प्रकाश में पा रही है और बी० १/३२४, जनकपुरी, नई दिल्ली-५८
(पृ० २० का शेपाश) अत्र सखायः सख्यानि जानते ।
म्बान्त सुखाय application, or what is more भद्रषां लक्ष्मीरनिहिताधिवाचि।
ancient terminology, was des gnated as the और माथ ही लिखा है कि : Dr. Upadhye is निष्कारण धर्म prescribed for an entellectual. a past master in the art of criticai editing. डा० उपाध्ये के विषय मे देशी व विदेशी विद्वानों ने He combines in himself the learning oft the जो कुछ लिखा है वह उनके सुसपादित ग्रन्थों में पठनीय है। oriental pandit and the agues eyed critical अव से लगभग १३ वर्ष पूर्व 'सन्मति सदेश' में डा. faculty of the new scholar, with which he उपाध्य का जीवन परिचय मैन ही लिखा था । पाज उन्हें approaches his task. By a system of checks अन्तिम श्रद्धाजलि प्रस्तुत करते हा हदय बड़ा गद्गद् पौर and counter-checks evolved for himself he Is दुख में अभिभूत है। मैं अपने अतरग की पीड़ा को शब्दों able to present a thoroughly relable text of म प्रकट नहीं कर पा रहा ह पर ज्ञान की जो पावन the old classics for which the Mss. material ज्योति बझ गई है, उसे अन्तिम प्रणामक ग्ता हुपा हार्दिक is sometimes scanty
श्रद्धा व्यक्त करता है। हे महात्मन् । जहाँ भी रह, सुखDr Upadhye has trained himself in the शान्ति मे ज्ञान के पथ को ग्रान्नांकित करते रहे। discipline of making tbe best use of his
"शुभास्ते सन्तु पन्थान." summer and winter vacations. He loads them श्रुत कुटीर, with strenuous labour ande xtracts from them ६८ कुन्ती मार्ग, a beautiful harvest He seems to suckjoy from विश्वासनगर, शाहदरा, this hobby, which is but another name for
दिल्ली