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२२, वर्ष २६, कि०१
अनेकान्त
किन्तु उसका सही अर्थ डा. हीरालाल जैन के शब्दो में बीच बाजार पाने की लड़ाई) प्रादि के लिए उत्तरदायी इस प्रकार है : "व्याकरणात्मक व्यत्पत्ति के अनुमार म्यात् है। जो तपस्वी श्रमण होते है उनके पास तो कुछ भी प्रस धातु का विधिलिग अन्यपुरुप एक बचन का रूप है नहीं होता । एक लगोटी भी नही होती। कठिन-से-कठिन जिसका अर्थ होता है ऐसा हो, एक सभावना यह भी है।" शीत में भी वे पुपाल पर तनिक मो लते है। शेष समय वास्तव में, स्याद्वाद मशयबाद नहीं अपितु समन्वयवाद है। प्रात्मध्यान में लगाते है। हा उमके पाम दो वस्तुएं होती उक्त दोनो वादो का एक सूपरिणाम श्रमण संस्कृति
है.---कमण्डल और मोर के पखो में बनी पिच्छि जिसके की सहिष्णुता और उदारता के रूप में हमा है। श्रमण ।
लिए मोर को मताना नही पडना । उसके पंख यू ही पड़े मत के अनुयायी गजानो ने अन्य मतावलम्बियो के साथ
मिल जाते है। इस प्रकार श्रमण अपरिग्रहवाद का सिद्धात मन्याय नही किया। श्रमण गृहस्थो ने सांप्रदायिक उत्पात
एक स्वैच्छिक समाजवाद का मिद्धात सिद्ध होता है । नहीं किए । वे सदा समदृष्टि बने रहे। वास्तविक श्रमण
यह तो मर्वविदित है कि श्रमण सस्कृति का सर्वाधिक या मुनि तो सहिष्णता के अन्यतम उदाहरण होते रहे है। स्पष्ट लक्षण तप है । यह नप कितना कठिन होता है यह उनके अचेलकत्व (दिगबरत्व) प्रादि के कारण उन पर
किमी से छिपाना है। अचेलकत्व या दिगम्बरव एक पत्थरों प्रादि की वर्षा भी यदि की गई, तो उन्होंने शाति
प्रत्यत ही कठिन माधना है। विरले ही उसे माघ या पूर्वक उसे झेला । कुछ ने तो अपने प्राण भी दे दिए किंतु
निभा सकने की मामध्यं रखते है। वास्तव में वह योग हिंसा का उत्तर हिमा में नहीं दिया। य.: श्रम की
माधन है । हर देश, काल और ऋतु मे उस पर दृढ रहना पराकाष्ठा है।
एक महामाधना ही ना हे। उम तक पहुचने के लिए श्रमण __ सहिष्णुता के एक ज्वलत उदाहरण के रूप मे कवि
सम्कृति म प्रतिमाओ (मीढियो) का विधान है। एकाएक प्रानंदधन (श्वेतांबर जैन संप्रदाय के एक महात्मा) की
कोई भी अचेलक नही हो जाता। ऐसे महायागो हिसक
श्रमण के गमक्ष परगर वैरी भो अपना वर-भाव भन एक रचना दृष्टव्य है - राम कहो रहमान कहो कोऊ कान्द हो महादेव री।
जाते हैं। महावीर की उपदेश मभा के बारे में यह कहा पारमनाथ कहो, कोई, ब्रह्मा मफन ब्रह्म स्वयमेव ।।
जाता है कि उसमें शर और गाय जैसे पशु भी निश्शक निज पद रमे राम मो कहिए रहम करे रहिमान गे।
उपस्थित रहते थे । पतजलि के यागदर्शन में कहा गया हैकर्षे, करम कान्ह मो कहिए महादेव निर्वाण ।।
"हिमा प्रतिष्ठाया तत्मन्निधौ बैरत्याग.।" (जो अहिंसक परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे मो ब्रह्म री।
है, उसके समीप किसी की बर-भावना नही रहती : मुनि वह विधि साधो पाप प्रानन्दधन, चेतनमय निष्कर्म री॥
विद्यानरजी द्वारा उक्त पुस्तक में उद्धृत)। सजेप में कहा प्राधिक क्षेत्र मे, श्रमण सस्कृति की देन अपरिग्रहवाद
जाए तो श्रमण सस्कृति निवृत्तिमार्गी है। का सिद्धात है। इसका मरल अर्थ यह है कि व्यक्ति को तप का आवश्यक प्रग चरित्र है । श्रमण सस्कृति में लोभ नहीं करना चाहिए और उसके पास इतना म्वय हो उसकी ही प्रधानता है। उसमे बाह्य क्रिया-कर्म या कर्महो जितना प्रत्यत पावश्यक हो । राजा और गृहस्था प्रादि कांड के लिए स्थान नहीं है । उसमे आत्मसाधना पर ही की स्थिति के अनुसार इसका परिणाम भिन्न होगा ही। इन अधिक बल है । चरित्र का पालन बिना सम्यक ज्ञान के लोगो के लिए दान की मख्य व्यवस्था श्रमण सस्कृति में सभव नही । इस कारण श्रमण परपरा सम्यक ज्ञान, सम्यक है। कम्युनिज्म भी ऐसी स्थिति की कल्पना करता है जब दर्शन और सम्यक् चारित्र्य की त्रिवेणी का महत्व देती मनुष्य केवल अपनी प्रावश्यकता मात्र को ही अपना लक्ष्य है। उसे मोक्ष का मार्ग कहा गया है । (मम्यग्दर्शनज्ञानबनाएगा और ऐसे समाज में राज्य की भी आवश्यकता चारित्राणिमोक्षमार्गः) । नही रहेगी। प्राखिर प्रावश्यकता से अधिक संग्रह की सृष्टि के विषय मे श्रमण सस्कृति की मान्यता है कि वह प्रवृत्ति हो तो चोरी, हिंसा, असहिष्णुता, युद्ध (देशों के अनादि है। उसका कोई कर्त्ता नही है । यदि कोई कर्ता हो