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२०, वर्ष २६, कि० १
अनेकान्त
ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया।" है, किमी से कुछ लेना-देना नहीं रखते, शांतचित्त होते है
उक्त उद्धरण से भी प्रथम जैम तीर्थंकर ऋषभनाथ का और हाथ में भोजन करते है)। प्राज भी दिगम्बर साध मबध श्रमण परंपरा से जुड़ जाता है। इनका भी उल्लेख किसी पात्र मे भोजन ग्रहण न कर हस्तसपुट मे ही भोजन ऋग्वेद में पाता है। इस प्रकार महावीर जिस श्रमण लेते है और दिगम्बर होते है। परपरा के उन्नायक थे, वह अत्यंत प्राचीन है।
प्रमुख विशेषतायें एवं उपलब्धियां श्रमण, वातरशन के अतिरिक्त इम सस्कृति के साधको श्रमण संस्कृति की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धिया इस को ब्रात्य (बतो का पालन करने वाले-अब भी दिगबर प्रकार है। मनिको पाच महाब्रतो का पालन करना होता है) अहिंसा -- न केवा महावीर और उनके पूर्वक्षपणक, मादि से सम्बोधित किया जाता था। ब्रात्य वर्ती तीर्थकरों ने अपितु महात्मा बुद्ध ने भी हिंसा का शब्द का उल्लेख तो वेदो मे भी पाया है। महावीर उपदेश दिया था। महावीर द्वारा पोषित श्रमण संस्कृति भी श्रमण मुनि कहलाते है। उन्होऋषि के रूप में कदाचित् मे जितना सूक्ष्म विश्लेषण और पालन अहिसा का हुआ ही संबोधित किया जाता है। हम अपनी भाषा में भी है उतना शायद अन्य किमी सस्कृति में नही हुप्रा । उसने ऋषि-मुनि इन युगल शब्दों का प्रयोग करते है। इसका पहिमा को परमधर्म घोषित किया। जियो और जीने दो कारण यह है कि मुनि का अर्थ ही है जो मनन या चितन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। उसने यह जरूर कहा कि करे अथवा जाने । तप की साधना के द्वारा ही वह ऐसा मन, वचन थोर कार्य इन तीनो में से किसी प्रकार से भी कर सकता है। जो पूरी तरह जान लेता है वह सपूर्ण हिसा नहीं करनी चाहिए । किमी का बुग सोच लेने मात्र ज्ञानी अथवा केवलज्ञानी हो जाता है। तब उस श्रमण से ही व्यक्ति हिसा का भागी हो जाता है। को तीर्थकर कहा जाता है। महावीर इसी प्रकार के एक प्रश्न प्राय. किया जाता है कि क्या महावीर श्रमण थे।
द्वारा उपदिष्ट पहिसा का पूरी तरह पालन सभव है। मेगस्थनीज ने अपने यात्रा विवरण में दो सप्रदायों का महावीर ने इसका अत्यंत व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत उल्लेख किया है। वे है---सरमनाई (थमण) तथा किया है कि राजा, किसान नथा साधारण गृहस्थ हिंसा से बाचमनाई (ब्राह्मण)। ह्वेनसांग ने भी थमणेरम् का जिक्र पूरी तरह बच नहीं सकते। युद्ध होगा तो राजा को किया है।
अन्यायी का मुकाबला करना ही होगा। किसान हन कबीर ने श्रमण साधनों का उल्लेख शेवड़ा (श्वेतवस्त्र
चलायेगा तो कुछ जीव मरेंगे ही। गृहस्थ भी जब चलेगा घारी साधु के के रूप मे) किया है। जायसी ने स्पष्ट ही
तो कुछ प्राणि उसके पैरों तले कुचले जायेगे। ऐसे लोगो दिगम्बर ब्शद अपने सिंहलद्वीप वर्णन में प्रयुक्त किया है।
के लिए उन्होने अणुव्रतो का विधान किया है। ऐसे लोग
यह प्रतिज्ञा ले कि वे स्वयं किसी प्रकार की हिंसा जानबूझउक्त उद्धरणो और विवेचन का सार यह है कि कर (जैसे अपने माहार के लिए किसी प्राणी का वध दिगम्बर श्रमण परपरा ऋग्वेद से लेकर माज तक सतत
करना, आदि) नही करेंगे। यज्ञो के लिए भी उन्होंने प्रवहमान रही है। इसके विपरीत वौद्ध परपरा अन्य अनेक
हिसा का विरोध किया था। फलतः यज्ञो मे हिसा लगभग प्राचीन परपरामो की भाति लुप्तप्राय हो गई। शायद इसका
बंद ही हो गई। श्रमण सस्कृति के साधु के लिए उन्होंने कारण यह रहा हो कि महावीर की परपग के श्रमणो ने सब प्रकार को हिंसा वजित की है। इस उन्होने महाव्रत तपस्या कर प्रात्मकल्याण के लक्ष्य को नहीं भुलाया। वे की सज्ञा दी। श्रमण साधु हिंसा का उत्तर हिसा से कभी अपने धर्म का प्रचार करने के लिए भारत के ही अन्दर या नही देगा। यह साधूपद भी कठिन अभ्याम के बाद किसी बाहर घूमते नही फिरे । भत हरि ने अपने वैराग्यशतक मे को प्राप्त हो सकता है। उनका बड़ा सुदर वर्णन किया है "एकाकी निस्पृह. शान्तः अहिंसा का एक दार्शनिक प्राधार भी है जो कि कर्म पाणिपात्रो दिगम्बर."(मर्थात् ये लोग एकाकी जीवन बिताते सिद्धांत से स्पष्ट हो जाता है