Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ १८, वर्ष २६, कि० १ अनेकान्त के क्षेत्र में लगाए रखना कोई उनसे सीखे। सन् १९६४ जब वे नहीं रहे तो लेखनी से लिपिबद्ध कर पश्चात्ताप या ६५ मे वीर सेवा मन्दिर में उनके अभिनन्दन का कर रहा हूं। इस समय महाकवि भर्तृहरि की निम्न उक्ति प्रायोजन किया गया था, हाल में लोग एकत्रित हो रहे उन पर अक्षरशः घटती है किथे। डा उपाध्ये ऊपर के कमरो मे ठहरे थे। मै सची के परगुणपरमाणन पर्वतीकृत्य नित्यं सम्बन्ध मे चर्चा हेतु उनके पास बैठा था, सूची के पारि- निज हृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ? श्रमिक के भुगतान की बात थी। डा. सा. ने कहा "This डा० उपाध्ये ने पिछले चार दशकों में जैन साहित्य is just a clerical job; you should not expect और समाज को जो कुछ दिया है, उसके लिए गारा ही much more" | बात चलती रही पर (Clerical) शब्द । देश चिर ऋणी रहेगा। वे पत्र का उत्तर अवश्य ही और का प्रयोग उन्हें स्वय कुछ अच्छा न लगा। यद्यपि इसे तत्परता से दिया करते थे। उनके द्वारा हजारो पत्र विभिन्न मैंने कछ भी महसूस न किया था फिर भी बातचीत के सस्थानो और व्यक्तियों को लिखे गये है जो जैन-साहित्य दौरान अनजाने ही उस (clerical) शब्द की पुनरावृत्ति के विकास एवं शोध के सम्बन्ध मे बड़े ही उपयोगी सिद्ध दो तीन बार हो गई जिससे वे बड़े ही व्यथित प्ररि हो सकते है। मेग अनुरोध है कि भारतीय ज्ञानपीठ, व्याकल हो उठे और शायद अपनी भूल समझकर उन्होने वीर सेवा मन्दिर या कोई अन्य सस्था या व्यक्ति इस पुण्य स्वय ही तीन-चार चटि अपने ही गालों पर तडातड जह कार्य को अपने हाथ में ले और सारेही पत्र संकलित कर लिए। वहाँ हम दोनों के अतिरिक्त तीसरा कोई न था। ममपादित कगकर प्रकाशित कराए, मेरे पास लगभग में प्रवाक किंकर्तव्यविमूढ-सा जडवत् खड़ा रह गया। १०० पत्र होगे जिन्हे देने को महर्प तयार ह। डा. मकछ न सझा और उनके चरण पकड़कर वही बैठ उपाध्ये ने लगभग बीस बन गयो का . गया और विनख-विलख कर रोता रहा। में प्रात्मग्लानि से उनकी विशद शोधपूर्ण ऐतिहासिक भमिकाएँ लिखी है गल रहा था और लज्जित था कि यह सब क्या हो गया जिनका देश-वि | था कि यह सब क्या हो गया जिनका देश-विदेश में समादर हया है, और वे सब अंग्रेजी था; उसे मेटा नहीं जा सकता था, मै तब तक रोता रहा मे है। प्रत सामान्य भारतीय उनसे पूर्णतया अवगत नही है जब तक कि नीचे से बुलावा नही पा गया । बुलावा पाते इसलिए उनका हिन्दी में अनुवाद काया जाये। साथ ही नीचे समारोह में जान लग । साथ ही मेरा पाठ पर उनके लगभग १०० शोधपूर्ण फुटकर निबन्ध भी है जिनका वत्सलतापूर्वक हाथ फेरते हुए मुझे भी उठाकर साथ नीचे हिन्दी अनुवाद अपेक्षित है। उनका अन्तिम निबन्ध समारोह में ले गए। मै बहुत ही बोझिल था, अपराधी 'यापनीय मय" से संबधित था जिसे उन्होने १७ जुलाई, जैमी दशा में वहा बैठा रहा, पर वे स्थितप्रज्ञ की भांति १६७३ को पेरिस में होने वाली अन्तर्राष्ट्रीय पोरिएटल पणशात प्रौर प्रवदात मन से अभिनन्दन समारोह में काग्रेस में पढ़ा था। उसका अनुवाद 'अनेकान्त' में प्रकासम्मिलित हए सभी प्रौपचारिकतामो के बाद जब उनका शित हो गया है। प्रभी जलाई १६७५ मे जब दिल्ली में उनसे भाषण हुमा तो उसमे उन्होंने मेरी और मेरे काम (भडाणे भेंट हई थी तो उनकी उत्कट अभिलाषा थी कि उनका की सूची) की भूरि-भूरि प्रशमा की और लोगो से इस लेखन हिन्दी वाले भी पढ़ें। मेरा उपर्युक्त संस्थानो से कार्य मे पूरा-पूरा सहयोग देने का प्राग्रह एव अपील की। अनुरोध है कि वे उनके लेखन को हिन्दी मे प्रस्तुत कराने में यह सब सुनकर बड़ा विस्मित था कि अभी-अभी ऊपर का उत्तरदायित्व सभाले। मैं अपनी ओर से पूरा-पूरा कमरे में क्या हुअा था और अब यहा क्या हो रहा है ? मेरा सहयोग देने को वचनबद्ध है। मन धुल गया था और उनके प्रति मेरा हृदय श्रद्धा से डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने डा. उपाध्ये के विषय गदगद हो उठा था। इस रहस्य का मै अाज तक अपने मे ऋग्वेद की निम्न ऋचा का उल्लेख किया है --- मन में बहुमूल्य निधि की भांनि सजोए रहा कि कही सक्तुम इव तितौना पुनन्तो किसी को सुनाकर या कह कर हल्का न हो जाऊ । प्राज यत्रधीरामनसावाचम प्रक्रत। (शेष पृ० २३ पर)

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