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भगवान महावीर तथा श्रमण संस्कृति
२१ कर्मवाद--श्रमण सस्कृति की यह मान्यता है कि पूर्ण उपलब्धि अनेकातवाद है। उसके अनुसार वस्तु मे अनेक यह मान्यता यह ससार अनादि है। इसका कोई प्रत या गुण होते है। किसी एक ही प्रत पर जोर देने से कर्ता नहीं है। इसमे जो अनंत प्राणी है, वे अपने अच्छे- मारे बखेड़े होते है। साधक को एकागी दृष्टिकोण से बरे कमों के अनुमार विभिन्न योनियों में भ्रमण कर रहे बचना चाहिए। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति एक ही समय है। इस प्रकार जीव का है। वह अच्छा-बुरा जो भी में पिता, मामा, नाना, पति मादि हो सकता है, उसी करता है उसका फल भोगता है। यदि वह अपनी मुक्ति प्रकार एक ही वस्तु में विभिन्न दृष्टिकोणो से विभिन्न के उपयुक्त कर्म नही करता तो अच्छी-बुरी योनियो में प्रकार की विशेषताए एक ही समय में सभव हो सकती घूमता रहता है। जब वह अच्छे कर्म कर केवल प्रात्म- है। प्राधुनिक भाषा मे यही साक्षेपवाद है। इस प्रकार, कल्याण म अपना ध्यान लगाता है तो उसकी मुक्ति हो इम सिद्धात द्वारा किसी भी पदार्थ के अनेको धर्मों या जाती है। कहा भी है -
गुणों का सामजस्य ऊपरी तौर पर विरोधी दिखाई देने स्वय कर्म करोत्यात्मा स्वय तत्फलमश्नुते ।
पर भी किया जा सकता है। मुनि विद्यानद जी ने इस स्वय भ्रमति ममारे स्वय तम्माद् विमच्यते ।।
सिद्धात का बही सरल भाषा म इस प्रकार समझाया है मुक्त हो जाने पर वह दूसगे के लिए केवल प्रादर्श
"जब हम कहते है कि प्रात्मा नित्य है तब हमाग दृष्टिकोण रूप होता है। वह दूसरो को न कोई वरदान देता है और भौतिक यात्मा--द्रव्य पर होता है, क्योकि भात्मा भौतिक न कोई दण्ड।
द्रव्य है, प्रत वह न तो अस्त्र-शस्त्रों से छिन्न-भिन्न हो उक्त सिद्धात का मार यह हमा कि श्रमण सस्कृति सकता है, न अग्नि से जल मकता है, न जल स गल की यह मान्यता है कि ससार के समस्त प्राणियो को जीन सकता है पोर न वायु से सूम सकता है। वह प्रनादि पौर अपना विकास करने का पूग अधिकार है उन्हें चंकि । काल में अना काल ना बना रहता है। परन्तु जब हम अपने प्रयत्लो से प्रात्मा से परमात्मा बनना है, अत मामारिक आवागमन का मुख्य करके प्रात्मा को पर्याय उनका कर्तव्य है कि वे न केवल एक दूसरे की रक्षा करें (भव-दमा) का विचार करते है. ना पारमा प्रनित्य सिद्ध मोर इस प्रकार एक-दूसरे को अपनी आध्यात्मिक उन्नति होती है क्योकि आत्मा कभी मनुष्य-भव में होती है, का अवसर दें, बल्कि एक-दूसरे से महयोग करें।
कभी मर कर पशु-पक्षी आदि हो जाती है। इस तरह एक सामाजिक क्षेत्र में उक्त सिद्धात का यह निष्कर्ष ही पात्मा मे नित्यता भी है और अनित्यता भी। पृ० ८३, निकलता है कि कोई भी जन्म से ऊँच-नीच नहीं होता। तीर्थकर वधमान) अपने कर्मों के कारण मनुष्य ऊची-नीची स्थिति को प्राप्त तकशास्त्र के क्षेत्र में अनेकातवाद का रूपातर होता है। इसीलिए श्रमण मस्कृति अस्पृश्यता को नही स्याववाद है। यह श्रमण सस्कृति का प्रमुख सिखात है। मानती।
इसके अनुसार, किसी पदार्थ का कथन सात प्रकार से विश्व मंत्री-समस्त प्राणियो की अहिंसा के कारण
किया जा सकता है। विस्तार में न जाकर इम तक के कुछ श्रमण संस्कृति विश्वमैत्री की प्रबल ममर्थक है क्योकि
मोपान है : वस्तु है, वस्तु नही हे, वस्तु का कथन सभव इसी मे सबका हित है।
नही है, इत्यादि । उदाहरण के लिए, हिमालय उतर में पुनर्जन्म मे विश्वास ---जीव जब तक. कुकर्म करता है, हिमालय उत्तर में नही है (जब हम चीन के भूगोल रहेगा तब तक उसे अपने कर्मों के अनुमार जन्म लेते को ध्यान मे रखे तब)। इसी प्रकार, यह कहा जा सकता है रहना पड़ेगा। इस प्रकार जब नक कर्मों की शृखला से कि हिमालय का ठीक-ठीक वर्णन सभव नही है (प्रवक्तव्य)। वह छुट नही जाता तब तक उसका जन्म होता रहेगा-- यह बात भूतत्व की दृष्टि से विचार करने पर कही जा यह श्रमण संस्कृति का एक मूल सिद्धात है।
मकती है। स्यावाद में जो 'स्यात्' लगा है उसका अर्थ अनेकांतवाद-दर्शन के क्षेत्र मे श्रमण सस्कृति की महत्व कुछ लोग शायद करते है और उसे सशयवाद बताते है