Book Title: Anekant 1976 Book 29 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 22
________________ भगवान महावीर तथा श्रमण संस्कृति 1) श्री राजमल जैन, नई दिल्ली श्रमण संस्कृति के महान् उन्नायक भगवान महावीर (जो सांगारिक विषयो मे खिन्न या उदासीन का इस वर्ष २५००वां निर्वाण महोत्सव मनाया गया अथवा तपस्या करता है)। इसमे भारत सरकार का भी योगदान रहा। यह एक अन्य प्राचार्य ने कहा हैउचित ही है कि जिस प्रकार महात्मा बुद्ध के २५००वें परित्यज्य नपो राज्य श्रमणो जायते महान् । जन्म-दिवम पर स्वतन्त्र भारत की सरकार ने अपनी तपसा प्राय सबध नपो हि श्रम उच्यते ।। श्रद्धाजलि अर्पित की थी, उमी भाति श्रमण सस्कृति के (राजा अपने राज्य को त्यागकर तथा तप से सबध अग्रदूत महावीर और उनकी इस देश को देन पर भी जोडकर महान थमण बन जाते है क्योकि तप ही थम कहलाता है।) विचार-विमर्श हुप्रा । महावीर अपना राज-पाट त्यागकर तप करने चल प्राचीन काल में अनेक श्रमण परम्पगए थी। किन्तु दिए थे, यह मर्वविदित है । बद्ध भी चल दिए थे । इमी. उनकी धारा इननी क्षीण रही कि धीरे-धीरे श्रमण शब्द लिए इनको मानने वाले तपम्वी श्रमण कहलाए । केवल महावीर और बुद्ध के अनुयायियो तक ही मीमित लेकिन श्रमण का प्रथं प्राचोन काल में दिगम्बर मुनि हो गया। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है कि । होता था। इसका प्रमाण बाल्मीकि रामायण की गोबिन्द"प्राचीन काल मे गोबतिक, श्वावनिक, दिशाबतिक पादि राजीय टीका में मिलता है, जहाँ स्पष्ट लिखा है . सैकड़ो प्रकार के श्रमणमार्गी प्राचार्य थे। उन्हीं में से एक "श्रमणा दिगम्बारा . श्रमणा वातवसना इति निघंटु." निग्रन्थ महावीर हुप और दूमरे बुद्ध। प्रौरी की परम्परा के अनुसार श्रमण का अर्थ दिगम्वर (मुनि) और वायु ही लगभग नामशेष हो गई या ऐतिहासिक काल में विशेष- जिसके वस्त्र है ऐसा होता है। रूप से परिवर्तित हो गई।" प्राचीनता भारतीय दर्शन के इतिहास से परिचित जन भली भाति वातरशना शब्द श्रमण संस्कृति को कम-से-कम ऋग्वेद जानते हैं कि महावीर की परम्परा बुद्ध से कही अधिक काल तक तो पुरातन सिद्ध करता ही है। ऋग्वेद को एक प्राचीन है। ऋचा मे लिखा है । मुनयो धातरशनः (वायु ही जिनकी श्रमण शब्द मेखला है ऐसे मुनि प्रर्थात् दिगम्बर साधु)। महावीर की श्रमण परंपरा और उसकी प्राचीनता एव प्रसिद्ध विद्वान् डा. हीरालाल जैन ने भागवत पुराण का भारतीय संस्कृति में उसके योगदान को समुचित रूप से उद्धरण इस प्रकार दिया है: "बहिणि तस्मिन्नेव विष्णुदत्व भगवान् परमपिभि प्रसादितो नाम प्रिय चिकीर्षया समझने के लिए श्रमण शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ को तदवरोधायने मेरु देव्या धर्मान् दर्शथितुकामो बातरशनाना जान लेना उचित होगा। यह शब्द श्रम्धातु से बना है श्रमणानाम् ऋषीणाम् ऊर्ध्वमग्थिना शुक्लया तन्वावतार जिसके दो अर्थ होते है---श्रांत होना या थकना और तप (भा० पु० ५-३-२०), अर्थात् यज्ञ में परम ऋषियो द्वारा करना (श्रम तपसि खेदे च)। अभिधान राजेंद्र नामक प्रसन्न किए जाने पर, हे विष्णदत्त, पारीक्षित, स्वय श्री शब्दकोश मे श्रमण शब्द का अर्थ इस प्रकार समझाया भगवान् (विष्ण) महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए गया है: "श्राम्यति संसार विषयेषु विन्नो भवतीनि वा इनके रनिवास में महारानी मा देवी के गर्भ में पाए । तपस्यतीति वाश्रमण:"। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण

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