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ज्ञान की पावन ज्योति बुझ गई है
- श्री कुन्दन लाल जैन, दिल्ली ६ अक्तूबर १९७५ को वह मनहूस घड़ी थी जब ८ शोध के क्षेत्र में कुछ चञ्च-प्रवेश कर पाया है। बजकर, ८ मिनट पर प्राकाशवाणी से उद्घोषित किया गया
सन् १९६० के अक्तूबर मास मे मोरिएटल कान्फ्रेस कि "डा. ए. एन. उपाध्ये का कोल्हापुर में निधन हो गया का अधिवेशन काश्मीर (श्रीनगर) मे हुमा था जिसमे है।" सुनते ही ऐसा अनुभव हा मानो किसी ने सिर पर
डा उपाध्ये और डा. हीरालाल जी सम्मिलित हुए थे। मैं हथौड़ जड़ दिए हो। चित्त बडा ही व्यथित हमा। वे ज्ञान के
भी घूमने के लिए काश्मीर गया था। पता चला कि डा भंडार थे। जितना गभीर और सक्षम अध्ययन उन्होने किया उपाध्ये यहाँ है तो उनसे मिलने चला गया। बातचीत के था, वैसा दूसरा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता है। उनकी
दौरान उन्होने पूछा--- केटलाग का काम करोगे ? मै इस शोधों से भारतीय विद्वान ही नही, अपितु भारतीय विद्या
दिशा में सर्वथा शुन्य था, फिर भी बिना कुछ जाने-समझे के विदेशी विद्वान भी बड़े प्रभावित थे । वे लोग उनकी
स्वीकृति दे दी। केवल यह समझ कर कि डा. उपाध्ये जैसे लेखिनी का लोहा मानते थे । डा. वासुदेव शरण अग्रवाल
विद्वान के वरदहस्त की छत्रछाया तो मिलेगी। प्रस्तु डा. सा. ने इंगलैंड के प्रसिद्ध विद्वान काायल (Carlyle) को
ने कहा कि फिर दिल्ली में मिलना, वही चर्चा करेंगे। दिल्ली उद्धृत करते हुए लिखा था : "Blessed is he who
पाकर दिल्ली के जैन भण्डागे में स्थित पाडुलिपियो की has got his life's work, let him ask for no
विवरणात्मक सची तैयार करने का सारा मसविदा तैयार other blessedness." Dr. Upadhye asks for no
हो गया और मैने बा० पन्नालालजी अग्रवाल के सहयोग other blessedness"
से यह पुनीत कार्य प्रारम्भ कर दिया। पर बीच में अनेकासन् १९०६ के फरवरी मास की छठी तिथि को नेक बाधाएँ पाई जिनसे बार-बार विचलित हो कार्य बेलगाम जिले के सदल्ग ग्राम में एक नक्षत्र उदित हुग्रा छोड़ना चाहता था, किन्तु बा० छोटेलाल जी के समचित था जो ६६ वर्ष ८ मास तक साहित्य और समाज को परामर्श एव डा. उपाध्ये की पत्रो द्वारा प्रेरणा पा-पाकर पालोकित करता हुअा ८ अक्तूबर, १६७५ को अस्त हो इस रूक्ष और प्रॉम्ब-फोडू परन्तु ज्ञानवर्द्धक कार्य में लगा गया। वे जैन शोध के क्षेत्र मे ऐसे प्रसर सूर्य थे कि उनकी रहा । प्राज जबकि उपर्यत गची की प्रेस कापी प्रकाशन के प्रचण्ड किरणें युग-युगो तक प्रनुस धित्सुग्रो का पथ पालो- लिए पड़ी-पड़ी सिसक रही है और डा. उपाध्ये नही रहे कित करती रहेगी पोर शोध के क्षेत्र मे मार्ग दर्शक बनी है, तो अखिो के प्रागे घनघोर अन्धकार छा जाता है। वे रहेगी! डा. उपाध्ये का सर्वप्रथम दर्शन सन् १९४६ मे ज्ञान को पावन ज्योति थ जो स्वय तिल-तिल जलकर स्याद्वाद विद्यालय वाराणसी के हाल में किया था, जब वे दूसरो को पालोकित किया करते थे । प्राज उनके प्रभाव अपने परम सखा डा० हीरालाल जी के साथ छात्र संघ के मे मुझ जैसे हजारो शिष्य किंकर्तव्यविमूढ़ता का अनुभव मामंत्रण पर विद्यालय में पधारे थे । उनको विद्वत्ता की करने लगे है । अब हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा, शोध के घाक समाज मे तब तक व्याप्त हो गई थी। विदिशा क्षेत्र में हमारी गुत्थियों को कौन मुलझावेगा? उन जैसा मथुरा प्रादि स्थानो पर भी उनसे समय-समय पर भेट सूक्ष्म अन्वेषक और अनुसधित्सु प्राज कोई जैन समाज में होती रही, पर सन् १९६. से तो उनके निकटतम सपर्क है क्या ? मे पाने का सौभाग्य मिला और उन्ही को अनुकम्पा-वश दूसरो के छोटे-छोट गुणो को बढ़ावा देकर उन्हें शोध