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ज्ञानाणव व योगशास्त्र: एक तुलनात्मक अध्ययन
लगभग यही भाव योगशास्त्र में भी इन शब्दों द्वारा हुए उनके धारण के फल की भी सूचना की गई है (५, व्यक्त किया गया हैप्राणायामस्ततः कश्चित् प्राधितो ध्यानसिद्धये।
यह हुई योगशास्त्र की विशेषता । अब मागे जो इन शक्यो नेतरथा कर्तुं मनःपवननिर्जय ॥५-१ दोनो ग्रन्थो मे ममानता दृष्टिगोचर होती है वह इस
उक्त प्राणायाम के पूरक, कुम्भक और रेचक इस प्रकार हैप्रकार से तीन भेद दोनो ही ग्रन्थो मे निर्दिष्ट किये गये ज्ञानार्णव (पृ. २८५) में कहा गया है कि नाभि से है। यथा
निकलकर हृदय-कमल के मध्य में जाती हई द्वादशान्त में त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः ।। विधाम को प्राप्त हुई वायु को परमेश्वर जानना चाहिए। पूरक कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।। ज्ञा०२ माथ ही यह भी कहा गया है कि उक्त वायु के संचार, प्राणायामो गतिच्छेदः श्वास-प्रश्वासयोर्मतः । गति और स्थिति को जानकर निरन्तर अपने काल, प्रायु रेचकः परकरचव कम्भकश्चेति स विधा ।। यो. ५.४ एव शभाशभ फल की
एव शुभाशुभ फल की उत्पत्ति को जानना चाहिए । यथा--
निको मात विशेषता यह है कि योगशास्त्र में प्राणायाम के
नाभिस्कन्धाद् विनिएकान्तं हृत्पदमोदरमध्यगम् । मामान्य स्वरूप का निर्देश करते हुए उक्त तीन भदो का
द्वावशान्ते सुविधान्तं तज्जय परमेश्वरम ॥७॥ उल्लेख किया गया है, परन्तु ज्ञानार्णव मे उम प्राणायाम
तस्य चार गति बुध्वा संस्था चंबात्मनः सदा । सामान्य का लक्षण नही निर्दिष्ट किया गया है। इसके
चिन्तयेत् कालमायुश्च शुभाशुभफलोदयम् ॥८॥ अतिरिक्त योगशास्त्र मे अन्य ऋषियो मतानुसार उक्त
लगभग उन्ही शब्दों में इसी अभिप्राय के२ सूचक तीन भेदो के साथ प्रत्याहार, शान्त, उत्तर और प्रधर ; इन
निम्न दो श्लोक योगशास्त्र में भी उपलब्ध होते हैचार अन्य भेदों को सम्मिलित करके उसके सात भेद भी
नानिष्कामतश्चारं हृन्मध्ये नयतो गतिम् । कहे गये है। यथा
तिष्ठतो द्वावशान्ते तु विद्यात् स्थान नभस्वतः ।।५-३७ प्रत्याहारस्तथा शान्त उत्तरश्चापरस्तथा ।
तच्चार-गमन स्थानमानावभ्यासयोगतः। एभिवेश्चतुभिस्तु सप्तधा कोत्यंते परैः ॥५-५
जानीयात् कालमायुश्च शुभाशुभफलोद्यम ॥५-३० प्रागे चलकर वहा इन सात भेदो का उसी क्रम में
मागे ज्ञानाणंव मे 'उक्त च श्लोकद्वयम्' कहकर निम्न लक्षणनिर्देश करते हुए उनमे से प्रत्येक के फल का भी
दो श्लोक कहे गये हैउल्लेख किया गया है (५, ६-१२) ।
समाकृष्य यदा प्राणधारणं स तु पूरकः । तत्पश्चात् वहा प्राण, अपान, समान, उदान और
नाभिमध्ये स्थिरीकृत्य रोषन स तु कुम्भकः ।। व्यान , इन पाच वायुभेदो का उल्लेख कर उनके जीतने की ।
यत् कोष्ठावतियत्नेन नासाब्रह्मपुरातनः । प्रेरणा करते हुए पृथक् पृथक् लक्षणनिर्देशपूर्वक उनके जीतने की विधि भी बतलाई गई है (१३-२०) । इसके
बहिः प्रक्षेपणं वायो. स रेचक इति स्मृतः॥ अतिरिक्त उक्त पाच वायुनों में ये, पं, वे और लो इन ये दोनों श्लोक कुछ पाठभेद के माथ विपरीत क्रम बीजपदो के ध्यान करने की पोर आकृष्ट करते हुए उनके मे योगशास्त्र में इस प्रकार उपलब्ध होते हैजीतने के फल का भी निर्देश किया गया है (५, २१-२४)। यत् कोष्ठादतियत्नेन नासाब्रह्मपुराननः ।
से न arचो वायनों के अभ्यास में कशल होकर बहिः प्रक्षेपणं वायोः स रेचक इति स्मत उनको कहा किस क्रम से धारण करे, इसका निर्देश करते -
२. भेद इतना है कि जहा ज्ञानार्णव में उक्त वायु को १. जानार्णव मे मात्र पूर्व मूरियो के अनुसार उक्त ३ ही परमेश्वर-मर्वश्रेष्ठ-कहा है वहा योगशास्त्र मे
भेदों का निर्देश करते हुए उन्हीं तीनों का लक्षण उक्त वायु का स्थान जानना चाहिए, ऐसा कहा गया निर्दिष्ट किया गया है (पृ. २८५, ३-६) ।
है । यहा वाक्य कुछ माकाक्ष सा बना रहता है।