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अनेकान्त
[वर्ष ११ कथइ चूब वणइँ विपल्लवियई,
विलाप-चित्रण में भी उसने बड़ी सफलता प्राप्त की णव-किसलय-फल-फुल्लब्भहियाँ ।५।। रावणके मरने पर मन्दोदरी और विभीषणके विप कत्थइ गिरि-सिहरइँ विच्छय,
सिर्फ पाटकके नेत्रोको ही सिक्न नहीं करते, बल्कि उनका - खल-मुहई व मसि-वरण णाव।।
मन मन्दोदरी और विभीषण तथा रवणके गम्भीर और कत्थइ माहव-मासहो मेइणि.
उदात्त भावोंकी दाद देता है।" हिन्दी काव्यधारा पृ.॥ पिय-विरहेण व सूसइ कामिणि ।
रामायण पर प्रभाव कत्थइ गिज्जइ वज्जइ मन्दुल,
इस सब कथन परसे स्वयंभूदेवकी रामायणकी महत्ताणर-मिहुणेहिं पणच्चिउ गोन्दलु का पता सहज ही चल जाता है, वह कितनी लोकोपयोगी तं तहो एयरहो उत्तर-पासहिं,
और बहुमूल्य कृति है। उनकी इस कृतिका हिन्दी भाषाके जण-मणहरु जोय
प्रसिद्ध कवि गोस्वामी तुजसीदासजी और उनकी कृति दिट्ट वसना तिलउ उब्जाउ।
'रामचरित मानस' पर अमित प्रभाव पड़ा है और उसका सज्जण-हियउ जेण अ-पमाणउ ॥१०
कविने बहुत ही भादरके साथ स्पष्ट शब्दों में उल्लेख भी
किया है जो मानसके शब्दों में निम्न प्रकार है:इसी तरह पावस और ग्रीषम प्रादि ऋतुओंका भी जे प्राकृत कवि परम सयाने, कथन सहज रूपमें किया गया है जिसे पढ़ कर चित्त प्रसस
भाषों जिन हरि चरित बखाने । औजाता है। यद्यपि कविने अपनी लधुता व्यक्त करते हुए भये जे अहहिं जे होहहिं आगे, अपनेको, म्याकरण, काव्य, छन्द और अलंकार मादिके
प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागे। परिज्ञानसे रहित बतलाया है। परन्तु जब हम अन्धको
इसमें बतलाया गया है कि प्राकृत (अपभ्रंश) के भाषाको देखते और मनन करते हैं तब हमें कविवरके पथ जो चतुर कवि हुए है, जिन्होंने रामदेवका चरित बनाया बडे ही कर्ण प्रिय चोर शब्द नपे-तुले तथा कथन है. हुए हैं, और आगे होंगे, मैं (तुलसीदास) उन
नवीनताको पाते हैं। इससे कविकी महानता का सबकी कपट रहित होकर बन्दना करता हूँ। यहाँ यह बात सहज ही पता चल जाता है । माननीय लेखक राहुलसांकृत्या- खास तौरसे नोट करने योग्य है कि प्राकृतमें हरिका चरित बनजीने स्वयंभूको सबसे बड़ा कवि बतलाया है, और उसे
सिर्फ जैन कवियोंने ही बनाये हैं। पूर्वकालसे अब तक प्रकृतिका सबसे गहरा अध्येता भी प्रकट किया है। जैसाकि
अपनश रचनात्रोंकी प्राकृत में ही गणना की जाती रही है, उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:
क्योंकि प्राकृतका बिगड़ा हुमा रूप ही अपभ्रंश है। इसीसे भने प्रकृतिका बहुत गहरा अध्ययन किया है। उसका उल्लेख ग्रन्थभंडारोंकी सूचियों प्रादिमें भी उशिखित यह हमारे दिये हए उद्धरणोंसे मालूम होगा । वे समुद्र और है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है कि भारतीय साहित्यमें जैन कितने ही अन्य स्थलों एवं प्राकृतिक श्योंका वर्ण करने में कवियोंको छोड़कर रामकथाकी कोई अपभ्रंश रचना प्रम बाहिती है। और सामन्त समाजके वर्णनमें उसको किसीसे तक प्रकाशमें नहीं आई है। किन्तु जब मैं मानसको ससाना नहीं की जासकती। किसी एक सुन्दरीके सौन्दर्यको बारीकीसे अध्ययन करता हूँ तब मुझे यह स्पष्ट पाभास भासने चित्रित किया है, वह तो किया होता है कि उस पर किसी अपभ्रंश रचनाका प्रभाव जरूर
लेकिन सन्दरियों के सामूहिक सौन्दर्यका वर्णन करनेमें रहा है। रामचरित मानसमें रचनाका क्रम, उकार बहल उसने कमाल कर दिया है। चित्रकारकी भाति कविके शब्दोंकी बहुलता भाव तथा अर्थविन्यास ये सब बातें और सामने भी कोई साकार नमूना रहना चाहिये । स्वर्षभूने भी स्पष्ट कर रही हैं। पथपि उसकी कथावस्तु वैदिक राष्ट्र टोंके रविवास और उनके मामोद-प्रमोदको नजदीकसे धर्मानुसार ही बाल्मीकि रामायण प्रादिसे नी जान देखा था। वहां परदा विल्कुल नहीं था, इसलिये और भी पड़ती है, किन्तु स्वयंभूदेवका 'पडम चरित' ही मन सुविधा थी। उसो सौन्दर्यको उसने रावण और अयोध्याके मानसकी ऐसी रचनामें प्रेरक हुआ है। स्वयंभूने अपनी रनिवासोंके सौन्दर्य के रूप में चित्रित किया है।
[शेष टाइटस पृष्ट ३ पर]