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किरण ३-४ ]
(७) यह नियत है कि उस द्रव्यकी उस स्थूल पर्याय में जितनी पर्याय योग्यताएँ हैं उनमें से ही जिस जिसकी अनुकूल सामग्री मिलती है उस उसका विकास होता है, शेष पर्याय योग्यताएँ द्रव्यकी मूल योग्यताओं की तरह सद्भावमें ही रहती हैं।
नियतिवाद
(८) यह भी नियत है कि अगले क्षण में जिस प्रकारकी सामग्री उपस्थित होगी, द्रव्यका परिणमन उससे प्रभावित होगा । सामग्रीके अन्तर्गत जो भी द्रव्य हैं, उनके परिणमन भी इस द्रव्यसे प्रभावित होंगे। जैसे कि ऑक्सिजनके परमाणुको यदि हाइड्रोजनका निमित्त नहीं मिलता तो वह ऑक्सिजनके रूपमें ह। परिणत रह जाता है, पर यदि हॉइड्रोजन का निमित्त मिल जाता है तो दोनोंका ही जल रूपसे परिवर्तन होजाता है । तात्पर्य यह कि- पुद्गल और संसारी जीवोंके परिणमन अपना तत्कालीन सामग्री के अनुसार परस्पर प्रभावित होते रहते हैं । किन्तु केवल यही अनिश्चित है कि अगले क्षण में किसका क्या परिणमन होगा ? कौनसी पर्याय विकास को प्राप्त होगी ? या किस प्रकारको साममा उपस्थित होगी ? यह तो परिस्थिति और योगायोग के ऊपर निर्भर करता है। जैसी सामग्री उपस्थित होगी उसके अनुसार परस्पर प्रभावित होकर तात्कालिक परिणमन होते जायेंगे। जैसे एक मिट्टी का पिण्ड है, उसमें घड़ा, सकोरा, प्याला आदि अनेक परि णमनोंके विकासका अवसर है । अब कुम्हारकी इच्छा, प्रयत्न और चक्र आदि जैसी सामग्री मिलती है उसके अनुसार अमुक पर्याय प्रकट हो जाती है । उस समय न केवल मिट्टीके पिण्ड का ही परिणमन होगा। किन्तु चक्र और कुम्हार की भी उस सामग्री के अनुसार पर्याय उत्पन्न होगी । पदार्थोंके कार्य-कारण भाव नियत हैं । 'अमुक कारण सामग्री होने पर अमुक कार्य उत्पन्न होता है' इस प्रकार के अनन्त कार्य-कारणभाव उपादान और निमित्त की योग्यतानुसार निश्चित हैं। उनकी शक्ति के अनुसार उनमें तारतम्य भी होता रहता रहता है। जैसे गोले ईंधन और अग्नि के संयोग सेम होता है, यह एक साधारण कार्यकारण भाव है। अब गीले ईंधन और अग्नि की जितनी
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शक्ति होगी उसके अनुसार उसमें प्रचुरता या न्यूनता, कमी वेशी हो सकती है। कोई मनुष्य बैठा हुआ है, उसके मन में कोई न कोई विचार प्रतिक्षण धाना ही चाहिए। अब यदि वह सिनेमा देखने चला जाता है तो तदनुसार उसका मानस प्रवृत्त होगा और यदि साधु के सत्संग में बैठ जाता है दूसरे ही भव्य भाव उसके मनमें उत्पन्न होंगे। तात्पर्य यह है कि - प्रत्येक परिणमन अपनी तत्कालीन उपादान योग्यता और सामग्री के अनुसार विकसित होते हैं । यह समझना कि -सबका भविष्य सुनिश्चित है और उस सुनिश्चित अनन्त कालीन कार्यक्रम पर सारा जगत चल रहा है । महान् भ्रम है। इस प्रकारका नियतिवाद न केवल कर्तव्य-भ्रष्ट ही करता है अपितु पुरुषके अनन्त बल, वीर्य, पराक्रम, उत्थान और पौरुषको ही समाप्त कर देता है। जब जगतके प्रत्येक पदार्थका अनन्त कालीन कार्यक्रम निश्चित है और सब अपनी निर्यातकी पटरीपर ढड़कते जारहे हैं, तब शास्त्रोप्रदेश, शिक्षा, दीक्षा और उन्नतिके उपदेश तथा प्रेरणाएँ बेकार हैं । इस नियतिवाद में क्या सदाचार और क्या दुराचार ? स्त्री और पुरुषका उस समय वैसा संयोग बदा ही था । जिसने जिसकी हत्या की, उसका उसके हाथसे वैसा होना ही था । जिसे हत्या के अपराध में पकड़ा जाता है, वह भी जब नियतिके परवश था तब उसका स्वातन्त्र्य कहाँ है, जिससे उसे हत्याका कर्ता कहा जाय ? यदि वह यह चाहता कि मैं हत्या न करूं और न कर सकता, तो ही उसकी स्वतन्त्रता कही जा सकती है पर उसके चाहने न चाहनेका प्रश्न ही नहीं है ।
० कुन्दकुन्दका अकतु स्त्रवाद श्राचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाथा में लिखा है कि- 'कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यमें गुणोत्पाद नहीं कर सकता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कुछ नया उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिये सभी द्रव्य अपने अपने स्वभाव के अनुसार उत्पन्न होते रहते हैं ।" इस स्वभावका वर्णन करने वाली गाथाको कुछ * देखो, समयसार गाथा ३०२