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अनेकान्त
[ वर्ष ५४ विद्वान् नियतिवादके समर्थनमें लगाते हैं। पर इस विशेष है कि-जीव उपादान बनकर पुद्गलके गुणगाथामें सीधी बात तो यही बताई है कि कोई द्रव्य रूपसे परिणमन नहीं कर सकता और न पुद्गल दूसरे द्रव्यमें कोई नया गुण नहीं ला सकता, जो उपादान बनकर जीवके गुणरूपसे परिणत हो आयगा वह उपादान योग्यताके अनुसार ही आयगा। सकता है। केवल परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकोईभी निमित्त उपादान द्रव्यों में असदुद्भुत शक्तिका के अनुसार दोनोंका परिणमन होता है। अतः उत्पादक नहीं हो सकता, वह तो केवल सदभूत आत्मा उपादान दृष्टिसे अपने भावोंका कर्ता है। शक्तिका संस्कारक या विकासक है। इसीलिये वह पुद्गल कर्मके ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मरूप गाथाके द्वितीयाने स्पष्ट लिखा है कि-'प्रत्येक परिणमनका कर्ता नहीं है। दव्य अपने स्वभावके अनुसार उत्पन्न होते हैं। इस स्पष्ट कथनका फलितार्थ यह है कि-परस्पर प्रत्येक द्रव्यमें तत्कालमेंभी विकसित होनेवाले अनेक ।
नक निमित्तनैमित्तिक भाव होने पर भी हर द्रव्य अपने स्वभाव और शक्तियाँ हैं। उनमेंसे अमुक स्वभावका गण-पर्यायोंका ही का हो सकता है। अध्यात्म में प्रकट होना या परिणमन होना तत्कालीन सामग्रीके
कर्तृत्व-व्यवहार उपादानमूलक है अध्यात्म ऊपर निर्भर करता है। भविष्य अनिश्चित है।
और व्यवहारका यही मूलभूत अन्तर है किकुछ स्थूल कार्यकारण-भाव बनाए जा सकते हैं पर अध्यात्म क्षेत्रमें पदार्थोके मल स्वरूप और शक्तियांकारणका अवश्य ही कार्य उत्पन्न करना सामग्रीकी का विचार होता है तथा उसीके आधारसे निरूपण समग्रता और अविकलता पर निर्भर है। 'नावश्यं होता है जब कि व्यवहारमें परनिमित्तको प्रधानतासे कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति' कारण अवश्य ही कथन किया जाता है। 'कुम्हारने घड़ा बनाया' यह कार्यवाले हो. यह नियम नहीं है। पर वे कारण व्यवहार निमित्त-मलक है। क्योंकि घड़ा पर्याय अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करेंगे जिनकी समग्रता
कुम्हारकी नहीं है किन्तु उन परमाणुओंकी है जो और निर्बाधताकी गारण्टी हो।
घड़ेके रूप में परिणत हुए हैं। कुम्हारने धड़ा बनाते प्राचार्य कुन्दकुन्दने जहाँ प्रत्येक पदार्थके समय भी अपने योग-हलनचलन और उपयोग रूपसे स्वभावानुसार परिणमनकी चर्चा की है वहाँ द्रव्योंके ही परिणति की है । उसका सन्निधान पाकर मिट्टीके परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भाव को भी स्वीकार किया परमाणुओंने घटपर्याय रूपसे परिणति कर ली है। यह पराकर्तृत्व निमित्तके अहंकारकी निवृत्तिके है। इस तरह हर द्रव्य अपने परिणमनका स्वयं लिये है। कोई निमित्त इतना अहंकारी न हो जाय कि उपादान-मूलक कर्ता है। आ० कुन्दकुन्दने इस वह यह समझ बैठे कि मैंने इस द्रव्यका सब कुछ कर तरह निमित्त-मूलक कर्तृत्वव्यवहारको अध्यात्म दिया है । वस्तुतः नया कुछ हुआ नहीं, जो उसमें था क्षेत्रमें नहीं माना है, पर स्वकर्तृत्व तो उन्हें हर उसका ही एक अंश प्रगट हुआ है। जीव और कर्म तरह इष्ट है ही, और उसीका समर्थन और विवेपुदगलके परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भावकी चर्चा चन उनने विशद रीतिसे किया है। परन्तु इस करते हुए आ. कुन्दकुन्दने स्वयं लिखा है कि- नियतिवादमें तो स्वकर्तृत्व ही नहीं है। हर द्रव्यकी
"जीवपरिणामहेदु कम्मत्त पुम्गला परिणमंति । प्रतिक्षणकी अनन्। भविष्यत् कालीन पर्यायें क्रम पुग्गलकम्मणिमित्त तहेब जीवोवि परिणमदि ॥ क्रमसे सुनिश्चित है। यह उनकी धाराको नहीं बदल यवि कुम्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। सकता । वह केवल नियति पिशाचिनीका क्रीड़ास्थल अण्णोण्याणिमित्त तु कत्ता, प्रादा सएण भावेण ॥ है और उसीके यन्त्रसे अनन्त काल तक परिचापुग्गलकम्मकदाणं ण दुकत्ता सन्वभावाणं ॥" लित रहेगा। अगले क्षणको वह असतसे सत् या
अर्थात् जीवके भावोंके निमित्तसे पुद्गलोंकी तमसे प्रकाशकी ओर ले जानेमें अपने उत्थान बल कर्मरूप पर्याय होती है और पुद्गल को निमित्त वीर्य पराक्रम या पौरुषका कुछ भी उपयोग नहीं से जीव रागादि रूपसे परिणमन करता है। इतना कर सकता। जब वह अपने भाव को ही नहीं