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२४ अनेकान्त
[ वर्ष १४ उसकी साध्वी बहिनको राज-कर्मचारी पकड़ कर काव्य-संबंधी धारणा स्पष्ट हो जाती है। वह कहते ले आए। उन्होंने यज्ञ-स्थल पर ही अपनी पूर्व हैं, 'कोमल पद पर कल्पना गढ़ हो, भाषा प्रसन्न कथा सुनाई, उससे जब मारिदत्तको यह ज्ञात हुआ किन्तु गंभीर होनी चाहिए। छंद और अलंकार कि ये उसके सम्बन्धी हैं तो वह विरक्त हो उठा। काव्यकी गतिके आवश्यक साधन हैं शास्त्र और इस काव्यकी सबसे बड़ी विशेषता यही है अर्थ तत्त्वकी गंभीरता होनी चाहिए, (म. पु०१, कि कथानकका विकास नाटकीय ढंगसे होता पृ०१) इस कसौटी पर कविकी रचनाएँ खरी है। सारी कथावस्तु बालक अभिरुचि अपने मुखसे उतरती हैं। पुष्पदंत बार-बार अलंकृत और रसकहता है, इसका सारा कथानक धामिक और दार्श- भरी कथा की उपमा देते हैं (जैसे म०पु.२ पृ० निक उद्देश्योंसे भरा है कथाके चलते प्रवाहमें १८, ४३, १३७, १५८, २१२, ३५५ । उससे यही अर्थ
आध्यात्मिक संकेत भी हैं। लेखक एक हद तक निकलता है कि कथाका निर्वाह ठीक हो, उसमें रस मानवीय करुणाको स्पंदित करने में समर्थ है। हो, अलंकार होणायकुमार चरिउमें भी (पृ० ३२, आदर्श ऊँचा है और उत्तम पुरुषमें होनेसे शैली ४४, ४६) इसी प्रकारकी उपमाएँ हैं । जसहर आत्मीय है।
चरिउमें उसकी एक बहुत ही सारगर्भित उपमा है, उद्देश्य और विचार :- कविने अपने वह कहता है "उसके पुत्र उत्पन्न हुआ वैसे ही जैसे साहित्यका उद्देश्य स्पष्ट रूपसे रखा है, उनकी कविबुद्धिसे काव्यार्थ" ५। इससे स्पष्ट है कि कवि साहित्य-संबंधी धारणा भी सुलझी हुई है, निश्चय काव्यमें अनुभूतिको महत्त्व देता है । यहाँ अनुभूति ही उसका उद्देश्य धार्मिक है। कविका कथन है कि आत्मा है और कल्पना शरीर । अनुभूतिकी प्रसवभैरव-नरेशकी स्तुति-काव्य बनानसे जो मिथ्यात्व
वेदनासे जब कविकी बुद्धि छटपटाती है तभी कल्पना उत्पन्न हुआ था, उसे दूर करनेके लिए उसने (म० उसे मूर्त रूप देकर वह काव्यार्थके शिशुको जन्म पु. १, पृ०४) महापुराणकी रचना की। उनकी दता है। समस्त रचनाएँ जिनभक्तिसे उसी तरह श्रोत व्यक्तित्व और स्वभाव :- कविका घरेलू प्रोत हैं जिस तरह तुलसीकी रामभक्तिसे। कवि नाम खंड या खंडू था, ऐसे नाम महाराष्ट्रमें अभीमन्त्री भरतसे कहते हैं "लो तुम्हारी अभ्यर्थनासे तक प्रचलित हैं। पुष्पदंतका स्वभाव उग्र और खरा मे जिन-गुणगान करता है, पर धनके लिए नहीं, था। राज्य और राजासे उन्हें चिढ़ जैसी थी। भरत केवल अकारण स्नेहसे"३ | एक स्थल पर वे कहते और बाहुबलीके प्रसंगमें उन्होंने राजाको लुटेरा है कि जिन-पद-भक्तिसे मेरा काव्य उसी तरह फूट और चोर तक कह दिया है। उनके उपाधिके नाम पड़ता है जिस प्रकार मधुमासमें कोयल आम्र-कलि- ढेर थे, अभिमान-चिन्ह कवि-कुल तिलक, सरस्वती. काओंसे कूज उठती है। उपवन में भ्रमर गूंजने निलय और काव्य पिसल्ल आदि। महापुराणके लगते हैं और कीर मानन्दसे भर उठते हैं। अंतमें कविने जो परिचय दिया है, उससे कविके कविने सरस्वतीकी जो बंदना की है उससे उसकी व्यक्तित्वका जीता जागता चित्र झलक उठता है।
------ --- - - ----- "सूने घरों और देव-कुलिकाओंमें रहने वाले, १ देखो म.पु.१, पृ०४।
कलिमें प्रबल पाप-पटलोंसे रहित, बेघर-बार, पुत्र२ मण कइत्त जियपद भत्तिहि पसरह उणिय- कलत्र-हीन, नदी, वापिका भार सरोवरोंमें स्नान जीविय-वित्तिहि।
करनेवाले, पुराने वल्कल और वस्त्र धारण करने३ धनु तय-समु मन्सुण तं गहणु णेहु शिकारणु वाले, धूलि-धूसरित अंग, दुर्जनके संगसे दूर रहने इमि।
वाले, जमीन पर सोने वाले, अपने हाथोंका तकिया बोक्खा कोहल अंबय कलियहि कामणि चंचरीड लगाने वाले, पंडितमरणकी इच्छा रखने वाले मान्यरुपया
-(म.पु.१.पू. ) ५ शुरुह कम्वत्युव कइमईए (जस०१०पृ. १८)