Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 392
________________ ३३४] अनेकान्त [वर्ष १४ 'मनरामविलास' कविके स्फुट सवैयों एवं छन्दोंका भी व्यर्थमें ही जाता हैसंग्रहमात्र है, जिनकी संख्या १६ है। इनके संग्रह कर्ता रीझत नहीं तउनागर जन, विहारीदास थे। वे लिखते हैं कि विलासके छन्दोंको उन्होंने मुसकि गवार देत दिगदोइ । छोट करके तथा शुद्ध करके संग्रह किये हैं। जैसा कि अति हीं मगन होत मन मांहि, विलासके निम्न छन्दसे जाना जा सकता है पुरतिय एक कटाविही जोइ॥ यह मनराम किये अपनी मति अनुसारि। देवहुँ दान बिना गुन समझे, बुधजन सुनि कीज्यौं छिमा लीज्यौ अब सुधारि । गुनी पुरुषको हरप न होइ। जुगति पुराणी दद कर. किये कवित्त बनाय। पावत सुख मनगम महा वह, कछुन मेली गांठिकी जानहुँ मन वच काय ।। ६४॥ जो गुन समझ अलप दे कोइ ॥१॥ जी इक चित्त प? पुरुप, सभामध्य परवीन । इस प्रकार विलासके सभी छन्द एकसे एक बढ़कर बुद्धि बढ़ संशय मिदै, सबै होय अाधीन ।। ६५॥ हैं। सुभाषित रचनाकी दृष्टिसे विलाम हिन्दीको एक मेरे चितमें उपजी. गुन मनराम प्रकास । अच्छी रचना है। विलासके कुछ दोहे और पढ़ियेसोधि बीनए एकठे. किये विहारीदास ॥६६॥ भली होइ छिन मैं बुरी भली ह जाइ। प्रसंग संगतिका चज रहा है। यह कहा जाता है- लखि विचित्रता करम को सुख दुख मूढ कराइ ॥१॥ जैसी संगति होगी, वैसे ही उसके संस्कार होंगे। किन्तु मन भोगी तन जोग लखि जोगी कहत जिहान । सज्जनोंकी सगति कितनी अच्छी है कि उससे दुर्जनोंके मन जोगी तन भोग तसु जोगी जानत जान ।। ७२॥ दोष भी ढक जाते हैं जैसे बहुतसे पेड़ोंके मुण्डमें एक ही सवै अरथ जुत चाह पर पुरुप जोग सनमान । मलयतरू सभी पेड़ोंकी हवाको सुगन्धित बना देता है, एसमझ मनराम जो बोलत सो जग जान ॥ ७३॥ था उन्हीं मलय-वृक्षों पर सर्प लिपटे हुए होते हैं, किन्तु x x x x फिर भी वे वृक्ष अपनी सुगन्धको नहीं छोड़ते हैं। कहुं आदर अर फल नहीं कहुँ फल आदर नाहि । अवगुनहूँ दृरि जांहि सब, गुनवंताके साथ । आदर फल मनराम कहि, बड़े पुरुप ही माहि ।।२।। दुर्जन कोटिक काजके, सज्जन एक समस्थ ॥ सज्जन एक समत्थ बहत द्रमि मलयातर। ६हूगरको बावनीजिते त्रिद्धि ते संग सकल कीए आप सर ।। कुछ समय पूर्व तक 'बावनी लिखनेका कवियोंको बहुत तजते न अपनी वास रहे विसहर जु लपटि तन। चाव था। इसी कारण हिन्दीमें श्राज कितनी ही बावनियां अचरज यह मनराम गहत नाह उनके अवगुन २६|| उपलब्ध होती हैं। 'डूगरकी बावनी' कवि पद्मनाभ द्वारा सत्पुरुषोंका दूसरों के साथ कैसा स्नेह होता है इसका संवत् १५४३ में लिखी गई थी। पद्मनाभ हिन्दी एवं वर्णन कविने कितनी सन्दरतासे किया है, उसे पढ़िये- संस्कृतके प्रतिभा सपन्न विद्वान् थे, इसलिये सधपति हूंगरने मिलत खीर को नीर सर्व अपनी गुन दीन्ही। उनसे बावनी लिखनेका अनुरोध किया था और उसीके दूध श्रगान पर धरयो वारि तन छीजन कीन्हो॥ कारण पद्मनाभ यह बावनी लिख सके थे । दंगरसीका परिअंब खेद लखि उफन चल्यों पय पावक वाहियो। चय देते हुए कविने लिखा है कि वे श्रीमाल कुलमें पैदा बहुरयो जल सींचयो इहि विधि सनेह निरवाहियो॥ हुए थे। उनके पिताका नाम रामदेव था और उनके छोटे उपसम निवारि दुख बरस परस तजि कपट मन ॥ पुत्र थे।यह तो प्रमान मनराम कहि है सभाव सतपुरुपजन महियल कुलि श्रीमाल, सात फोफला भणिज्जै। दान देना मानवका उत्तम गुण है, लेकि . कवि कहता तस अवदात अनंत जहि कहि येह घुणिज्जै ।। है कि दान उमीका श्रेष्ठ है जो उसके गुणावगुणको समझ ल्ह ताल्ह श्री-प्रनण लाल सन दरउ वनकर । कर देता है क्योंकि बिना गुणावगुण जाने बहुत-सा दान रामदेव श्रीसंघभार आचार धुरंधर ।।

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