Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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किरण ११-१२]
जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह
[३६१
इहु तुम्ह पसाएं करमि कन्वु,
मिरिराम-णिवाण-गमणो णाम एकादसमो संधि परिच्छेश्रो हउं मह विहीणु सोहेहु सम्वु ॥
ममत्ती १॥ जसु मह इह जात्तिय सो पुणु तेत्तिय पयडउ दोसुण अत्यि इह प्रति आमेर भंडार, लिपि सं०१५५१ णिय धणु अणुमारे सहु परिवार ववसावि सो करउ तिहा ॥५ (स. १५४६ की लिग्वित नया मन्दिर धर्मपुराकी x x x
अपूर्ण प्रतिसे संशोधित ) इय बलहह-पुराणे बुहयणविदेहि लख-सम्माण
३६-मेहेसर चरिउ सिरिपढिय-रहधू-विरइए पाइय-बंधेण अस्थि विहि-सहिए (मेघेश्वर चरित) कवि रइधू मिरि हरिसीहु साहु-कंठ-कठाहरणे उहय-लोय-सुह-सिद्धि- आदिभागकरणे वंस-णि प-रावण उप्पत्ति-वण्णणो णाम पक्षमा मंधि- सिरि रिसह जिणदह धुवसय इदह भवतम चदहु गणहरहु । परिच्छी समतो॥
पय-जयलु णप्पिणु चित्ति णिहणेप्पिणु चरित भणमि मेहेसरहु चरम भाग :
जय रिसहणाह भव-तिमिर-सूर, भन्वहं गुण णदउ किउ मुकम्मु,
जय णासिय तासिय कुमइ दूर । अरु णंदउ जिणवर-भाउ धम्मु ।
जय करण हरण गणहरि अपाव, रा: वि पदउ सुहि पय पमाणु,
जय ति-जय-सुहंकर सुद्धभाव । णंदउ गोचम्गिार अचलु ठागु ॥
जय तियस-मउड-मणि-घिट्ट-पाय, सावय जणु णंदउ धम्म-लीगु,
जय श्राइ जिणेपर वीयराय । जिणवाणी अायण्णण पचीणु ।
जय णिम्मल केवल णाण वाह, देसु विहिरवहउ मुहि-वसेउ,
जय अठवह दोस-विगय प्रवाह ॥ घरि घरि अच्चिजउ अाइदउ ।
जय भासिय तरचं रूबमार, णदउ पुणु हरसीसाहु एन्धु,
जय जणगोवहि णिरु पत्त पार । जि भाविउ चयण-गुण पयत्थु ।
जय वाएमरि वह हिम-गिरिद, मई अंगिमंतु जमु फुरइ चिनि,
जय घरह निरामय महि अगिंद ॥ कलिकाल-धरिय जिं झाण सति ॥
जह निहय पमाय भयंत संत, सिरि रामचरितु वि जेण एहु,
जय मुत्ति-रमणि-रजण-सुकंन । काराविउ सम्बई जणिय णेहु ।
जय धम्मामय ससि सुजस सोह, तहु णंदणु णामें करमसीहु,
जय भन्हं दुग्गह-पह-निगेह ॥ मिच्छत्त महागय-दलण-सीहु॥
पुगु मिरि वार जिणेंदु पणविवि भत्तिए मुदउ । मो पुणु पदउ जिण-चलण-भत्तु,
मम्ममा सारु जामु तित्त्थे मह लद्भउ ॥१॥ जो राय महायणि मागु पत्तु ।
साय-बाय-मुह कमल-हयंती, मिरि पोमावइ परवाल वंसु,
वे पमाण-णयणहिं पेच्छनी। गदड हरिसिंघु सघवी जासु संसु ॥
पवयण श्रत्य भणइ गिरि कोमल, वाहोल माहणसिह चिरु णंदन
णाणा सह दमण-पह-हिम्मत ।। इह रइधू कइ तीयड विधरा ।
व उवोय करण जुमु संविउ, मोलिक्क समाणउ कल गुण जाणउ
नासा बंप सुचरित परिटिउ । णंदउ महियलि सोवि परा ॥ १७ ॥
हा विग्गह तह गल काल, इय बलहह-पुराणे बुहयण-विदेहि लख-सम्माणे
वे णय उरकह सहहि उरस्थलि । सिरि पंडिय-रह-विरहए पाइय-बंधेण अत्य-विहि-महिए
वायरणंगु उपरु णिरु दुग्गमु, सिरिहरिसीह-साइ-कंठ कंठाहरणे उहयलोय-सुह-सिद्धि करणे णाहि अन्य गंभीर मणोरम ।

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