Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 404
________________ ३४४] अनेकान्त वर्ष १४ स्वच्छन्दचारिणी हो गई और परमार्थ के ज्ञाता और प्रात्म अाकाश में चमकने वाला मूर्य कहते हैं। इस तरह दोनों ने ध्यान मे तल्लीन यतियो में स्वपराध्यवसाय उत्पन्न हो अपनी कुल परंपरा का परिचय देते हुए अपने को गया उस समय जातिसांकर्य से भयभीत हुए महद्धिक लोगों पंचस्तूपान्वयी बतलाया है। परन्तु इन्ही वीरसेन के ने मवके उपकारार्थ ग्राम-नगर प्रादि के नाम मे कुलों की प्रशिष्य और इन्हीं जिनमेन के गिष्य गुरणभद्र भदन्न इन रचना की और उसी वक्त सब निमित्तनों में अग्रणी यति- दोनो को सेनान्वयी कहते हैं और कहते है कि वीरसेन से राज अहंबली ने भी मंघों का मंगठन किया । जो कि संघ जिनसेन हुए और जिनसेन के सधर्मा दशरथ गुरु हुए, मैं स्थान-गहा, शाल्मलीद्रम, अशोकवाट आदि मे स्थित अर्थात् जिनमेन और दशरथ गुरु इन दोनों का जगद्विश्रुत शिष्य निवास के भेद मे मिहमंघ, नन्दिसंघ, सेनसघ और देवसंघ हुअा हूँ। इस पर से ज्ञात होता है कि पंचस्तूप्य कुल इस प्रकार स्पष्ट हैं। और मेनसंघ दोनों एक ही परंपरा के नाम हैं । अतः दोनो इन्द्रनन्दी ग्राचायों के उल्लेखों के अनुसार स्पष्ट दोनो जुदी जुदी वस्तु नही है। इसी तरह गुहावासी कूल है कि स्थान स्थिति को लेकर पांच कूलों के नामो और और नन्दिसंघ, प्रशोकवाट कुल और देवसंघ, तथा उनकी संज्ञानों का तथा चार संघों का सगठन अष्टाग खंडकेमर कुल और मिहसप भी अभिन्न जान पड़ते है। निमित्त वेता आचार्य अहंबली ने ही किया था। शाल्मलीवृक्षमूल कुल भी इन चार मे से किसी एक मे मंघों के अन्तर्गत नाम भी यत्र तत्र पाये जाते है जिनमें अन्तर्भूत हो गया दिग्वना है। इन संवों से अनेक गरण-गच्छ उत्पन्न हुए है, जो कुलों और मपो मे एकीकरण प्रतीत होता है। कुलों की स्व-पर को मुखोत्पादक है। उनमे प्रवृज्या, चर्या प्रादि में अन्तर्गत मंजाए दी जा चुकी हैं, मंघों की अन्तर्गत मंज्ञाए ये कोई भेद नहीं है, न प्रतिक मण-क्रिया में भेद है, न है-नन्दिमंघ के मुनियो की नन्दी, चन्द्र , कीर्ति और भूपण, प्रायश्चितविधि मे भेद है और न ही आचार-वाचना सेनमंघ के मुनियों की मेन, वीर और भद्र सिंह संघ के प्रादि मे विभिन्नता है, यह भी नीतिसार मे कहा गया मुनियों की मिह, कुभ, मानव और सागर, तथा देवमघ के है। ये सब सघ और उनके गण-गच्छ मूलसंघ के यतियों की देव, दन, नाग और तुग । कुलो की अन्तर्गत अन्तर्गत है। मूलसंघ नाम परापर पूर्वक्र मवर्ती मुमुक्ष ओ सज्ञानों मे नन्दि. मेन, मिह और देव प्रथम नाम दृष्टिगत के एक वर्ग का है, जो कि भगवान महावीर मे लेकर हो रहे है और मयो की अन्तर्गत मंजारों में भी नन्दि, अविच्छित्र रूप से चला पाया गृहीत यं मंविग्न प्राचार्यो सेन, सिंह और देव प्रथम नाम है । इम पर मे ऐसा प्राभाम का सम्प्रदाय विशेष है।। मिलता है कि कुलो के अन्तर्गत प्रयम नामों पर से सपों (उन गण-गच्छों के नाम भी पुस्तकों मे जहाँ तहा के नाम व्यवहृत हो गये हैं और कुनों के गुहावास, पंच- देखने में प्राते है। जैसे दक्षिणा पथ के नन्दिसंघ में स्तूप्य प्रादि नाम विलुप्त हो गये हैं । फलितार्थ यह कि पुस्तकगच्छ और वक्र गच्छ तथा देशिगण । उत्तरापथ के कुल मौर संघ जुदे जुदे नहीं हैं। गहावास कुल ही नन्दि नन्दिमध में सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण) सेनमंघ मे संघ है, पचस्तृप्य कुल ही सेनसघ है अशकवाट कुल पुष्करगच्छ मूरस्यगण, सिंहसंघ मे चन्द्रकपाटगच्छ काणूरही देवमंघ है और खडकेसर कुल ही मिह मंध है। गण । यह इतिवृत्त उत्तरापथ के नन्दिसंघ के मरस्वतीगच्छ उदाहरण के बतौर, धवल और पूर्वा श जय- मौर बलात्कारगण से सम्बन्धित है, जिसका कि आधार धवल के कर्ता प्राचार्य वीपमेन अपने को चन्द्रमेन के पूर्वोक्त सामग्री है। प्रशिप्य, और मार्यनन्दी के शिष्य बतलाते हुए पंचम्नू- पट्टावलियां मुख्यतया हमारे पास दो हैं एक संस्कृत पान्वय का सूर्य बताते हैं । इन्ही वीरमेन के शिष्य पट्टावली और दूसरी अजमेर पट्टावली । पहली पट्टावली जयधवला के उत्तरांश के कर्ता जिनसेन अपने गुरु संस्कृत भाषा में है और वह पद्यात्मक है । दूसरी मारवाडी स्वामी वीरमेन को चन्द्रसेन का प्रशिष्य और प्रार्थनन्दि हिन्दी भाषा में गद्यात्मक है। इसमें नन्दिसंघ के बलात्कार का शिष्य उद्घोषित करते हुए उन्हें पचस्तूपान्वय रूप गण के पट्टधरों की पट्ट संख्या, उनके जन्म के वर्ष, दीक्षा

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