Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 410
________________ ३५०] अनेकांत [वर्ष १४ % E ७८ प्रा. वसन्तकीर्ति--ये ऊपरके क्रमानुसार वादियों में इन्द्रके तुल्य थे, परवादी रूप हाथियोंके मद को अभयकीति के पट्टधर थे। क्योकि निम्न पद्य मे अभय- विद्रावण अर्थात् चूर चूर करने के लिए सिंह सदृश थे, कीतिका नाम पहले है और वसन्तकीति का पश्चात् । इस विद्य विद्याके पास्पद थे, और श्री मंडपदुर्ग में प्रति परसे प्रभयकीतिके पट्ट पर वसन्तकीर्ति हुए यह जान विदित थे या प्रसिद्ध मडपदुर्ग में निवास करते थे । यथालेना अस्वभाविक नही है । यथा तस्य श्रीवनवासिनस्त्रिभुवने प्रख्यातकीत्तिरभू च्छिष्योसिद्धान्तिकोऽभयकीतिर्वनवासी महातपाः । ऽनेकगुगणालयः सम-यम-ध्यानापगासागरः । वसन्तकोतिर्व्याघ्राहिसेवित. शीलसागर. ॥२१॥ वादीन्द्र. परवादिवारणगगप्रागल्भविद्रावण. सिहः श्रीमति मंडपेऽतिविदितस्पैविद्यविद्यास्पदः ॥२२॥ पद्य का भाव स्पष्ट है कि प्राचार्य प्रभयकीर्ति सैद्धान्तिक थे वनवासी थे और महान् तपस्वी थे। वसंतकीति इस परिचय पर से ज्ञात होता है कि प्रा० प्रख्यातभी वनवासी थे, तपस्वी थे, व्याघ्रो और सो द्वारा कीर्ति वस्तुभूत त्रिभुवन प्रख्यातकीर्ति थे। मेवाड़ के माडलसबित थे और शीलके सागर थे। पट्टावली मे दोनो का दोनो का गके जंगलों में वे अपने शिष्य-समूह के साथ रहते थे । समय वि० सं० १२६४ दिया गया है। इस परसे ज्ञात पट्टावली मे इनका समय १२६८ दिया गया है। इनकी होता है कि दोनों की पट्टावस्था सभवतः एक ही वर्षके सर्वायु २८ वर्ष ३ माह २३ दिन थी, पट्ट पर २ वर्ष भीतर भीतर समाप्त हो गई थी। ३ माह २३ दिन रहे थे। इनके अवशेष ११ वर्ष गृहस्थपने मे और १५ वर्ष दीक्षावस्थामे व्यतीत हुए थे, यह भी सोलहवी शताब्दी के मध्यभागीय बहुश्रुत विद्वान् श्री पट्टावली मे ही उद्धृत है।। श्रुतसागरसूरि जिन्होने अनेक प्रौढ ग्रन्थों की मौलिक ८० प्रा०विशालकीर्ति-ये प्राचार्य श्रीप्रख्यातकीति टीकाएं लिखी हैं और कई मूलग्रंथो की भी रचना की है . के पट्टधर थे। ये उत्कृष्ट प्रतो की मूर्ति थे और तपोषट्प्राभूत की टीका मे अपवाद वेषका उल्लेख करते हुए एक महात्मा थे । यथावसंतकीति स्वामीका निम्न प्रकारसे परिचय देते हैं विशालकीतिर्वरवृत्तमूर्तिस्तपोमहात्मा ........... । कोऽपवादवेष ? कली कि म्लेच्छादयो नग्नं दृष्टवा अजमेर पट्टावली और नागौर पट्टावली मे प्रख्यातउपद्रव यंतीना कुर्वन्ति नेन 'मंडपदुर्ग' श्रीवसतकीतिना कीर्ति के बाद शान्तिकीर्ति का नाम है और समय उनका म्वामिना चर्यादिवेलाया तट्टी सादरादिकेनचर्यादिकं कृत्वा क्रमशः १२६८ और १२७१ दिया गया है। कितने वर्ष पुनस्तुन्मुन्वतीत्युपदेश. कृतः शान्तिकीर्ति पट्ट पर रहे यह ज्ञात नही हो पाता है। इस उद्धरण मे जिन वसतकीति स्वामी को अपवाद कारण प्रागे पाठक्रम नष्ट है । तथा दोनो ही पट्टावलियो वेष का उपदेष्टा कहा गया है । वे प्रकृत वसतकीर्ति ही मे शान्तिकीर्ति के पश्चात् धर्मचन्द्र का नाम दिया गया प्रतीत होते हैं । क्योकि स्वामी वसन्तकीतिने यह उपदेश है। भामेर और सूरत की पट्टावलियों मे शान्तिकीर्ति का मडप दुर्ग मे दिया था। जो कि इस वक्त माडलगढ़ कोई नाम है ही नही। उनमे भी बसन्तकीर्ति, प्रख्यातकीर्ति कहलाता है। उसी मडप दुर्ग मे उनके शिष्य प्रख्यात कीर्ति विशालकीति, शभकीर्ति और धर्मचन्द्र इस क्रमसे नाम का होना कहा गया है । इस परसे यह जान लेना सहज है दिये गये हैं। इस पर से स्पष्ट है कि अजमेरकी पट्टावली कि पट्टावलीके वसतकीति और श्री श्रुतसागरके लक्ष्यभूत मे पाठ भ्रष्ट हो गया है और नागौर की पट्टावली जिसमे वसन्तकीति एक ही अभिन्न महापुरुष हैं। केवल नाम और सवत्का ही उल्लेख है, उसने भी अजमेर ७६ प्रा० प्रख्यातकीर्ति-ये आचार्य वसंतकीतिके पट्टावली का ही अनुसरण कर लिया है। क्योकि अजमेर पट्ट पर हुए थे । क्योकि पावली मे प्रख्यातकीर्ति को प्रा. और नागौर के पट्ट एक ही परपरा की देन है। वसतकीर्ति का शिष्य बताया है। नीचेके पद्य में इनका भट्टारक विद्यानन्दी जो कि सोलहवी शताब्दी के परिचय इस प्रकार दिया गया है कि उन वनवासी वसत- प्रारंभ में हो गये हैं और जो बहुश्रुत विद्वान् श्रुतसागर कीर्ति के शिष्य त्रिभुवन-प्रख्यातकीर्ति हुए। जो अनेक सूरि तथा भ० मल्लिभूपण के गुरु थे अपनी वंशपरंपरा, गुणों के प्रालय थे, सम यम और ध्यानके सागर ये, विशालकीति से प्रारभ करते हुए सुदर्शनचरित मे इनका

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