Book Title: Anekant 1956 Book 14 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ ३४६] अनेकान्त [वर्ष १४ चतुर्दश पूर्वधरो, और ग्यारह अंग-दशपूर्वधरों तक के नामों से तो यही सूचित होता है कि द्वितीय भगवद् भद्रबाहु और समय में कोई अन्तर नही है। अन्य प्राचार्य भी इनका विक्रम राजाके समयमे विद्यमान थे। काल क्रमशः ६२, १००, १८३ मिलाकर ३४५ वर्ष मानते भगवत्कुन्दकुन्द भी एक भद्रबाहु श्रुतज्ञानी का जयहैं तो विक्रम प्रबन्ध के कर्ता इनके नाम और समय भी वाद रूप मे स्मरण करते है वे प्रथम भद्रबाहु जान पडते इतना ही मानते है । किन्तु आगे एकादशांगारियो के हैं, क्योकि ग्यारह अग और चौदह पूर्व के ज्ञाता प्रथम नाम तो अन्य प्राचार्य और विक्रम प्रबन्ध के कर्ता वे ही भद्रबाहु ही थे। प्राचार्य शाकटायन अपरनाम पाल्यकीर्ति गिनाते हैं जो कि ऊपर कहे गये हैं। किन्तु समय इनका भी अमोघवृत्ति मे 'ट: प्रोक्ते' सूत्र की व्याख्या मे उदाहरण अन्य प्राचार्य जहा २२० वर्ष कहते है वहाँ विक्रम प्रबन्ध- के रूपमें 'भद्रबाहुना प्रोतानि भद्रबाहवागिण उनराध्ययनानि' कर्ता १२३ बताते हैं । अवशिष्ट ६७ वर्षों मे सुभद्र, यशो- इस प्रकार उल्लेख करते हैं । ये भी संभवत. प्रथम भद्रबाहु भद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य दश नव प्रष्ट अग के घारक ही है । क्योकि इन्होने ही गणधर प्रणीत उत्तराध्ययन हुए ऐसा कहते हैं जिनको कि अन्य कितने ही प्राचार्य सूत्रोका द्वादशागके वेत्ता होनेके नाते परिपूर्ण अन्तिम उपएकांगज्ञाता कहते हैं और समय ११८ वर्ष बताते हैं। देश या व्याख्यान दिया था। विक्रम प्रबन्ध के कर्ता के मतानुसार लोहाचायं तक की तात्पर्य-पूर्वाचार्य अपनी अपनी कृतियोंमे कोई श्रुतकाल गणना ६२, १००, १३, १२३ और ६७ मिलकर केवली भदबार का कोई प्रजग निमितज केवली भद्रबाहु का, कोई अष्टांग निमितज्ञ भद्रबाहुका ५६५ वर्ष होती है, जब कि अन्य प्राचार्यों के मतानुसार नामस्मरण करते है, कोई इन्हे दश नव प्रष्ट अंगधर, कोई ६२, १००, १८३, २२० और ११८ मिलाकर ६८३ वर्ष प्राचारांगधर आदि पदों से भी विभूषित करते हैं। इम होती है। विक्रम प्रबन्ध के अनुसार वी०नि० ४७० वर्ष तरह दो भद्रबाहु हो गये है। अधिक भी हुए हो तो पीछे विक्रम राजा हुया है। लोहाचार्य के ५६५ वी. नि तो निश्चित किया नदीमा निमे से ४७० घटा देने पर लोहाचार्य का वि० स० मनपणासनो मे और प्राचार्यो की नामावलियो प्राटि ६५ पाता है। लोहाचार्य ५० वर्ष तक पट्ट पर जीवित मे दो ही भद्रबाहोंके नाम देखने में प्राते है। प्रथम रहे हैं, अतः वि० सं० ६५ और वी० नि० ५६५ मे से भद्रबाहु तो ग्यारह अंग चौदह पूर्वके ज्ञाता श्र नज्ञानी थे भद्रबाह तो ग्यारह अंग ५० वर्ष बाद कर देने पर भद्रबाह का समय वि० सं० इस विषय में तो किमीका भी मतभेद नही है। किन्त ४५ और वी०नि० स० ५१५ के लगभग पाता है। द्वितीय भद्रबाहुको कोई दश नव अष्ट अंगधर, कोई प्राचापट्टावली मे भद्रबाहु का समय वि. स. ४ दिया गया है रागधर, कोई अग-पूर्वो के एक देशधर और कोई अष्टागजो अनकरीब पास ही पड़ता है । पट्टावली मे विशेष निमितज्ञ कहते हैं यह मतभेद अवश्य है। उल्लेख यह भी है कि प्रा० भद्रबाहु की कुल प्रायु ७६ २ श्रा० गुप्तिगुप्त-प्राचार्य गुप्तिगुप्त उक्त प्राचार्य वर्ष ११ माह की थी। २४ वर्ष उनके गृहस्थपने मे ३० भद्रबाहु मुनिपुगव के पट्ट पर हुए थे। इनके चरण सम्पूर्ण वर्ष दीक्षावस्था मे २२ वर्ष ११ महीने पट्ट अवस्था मे राजानो द्वारा वन्दनीय थे। वे सबको निर्मल मघवृद्धिको व्यतीत हुए । विक्रमप्रबन्ध मे इनका प्राचार्य-काल २३ वर्ष माना गया है। पट्ट-विषयक वर्षों में विक्रम प्रबन्ध देवे ऐसी पट्टावली के मंगल वाक्य में कामना की गई है। और पट्टावली एक मत है। नीतिसार के कर्ता इन्द्रनन्दी यथा-- के उल्लेखो पर से प्रतीत होता है कि विक्रम नृपति और श्रीमानशेपनरनायकवन्दितांहि श्रीतिगुप्त इति मा० भद्रबाहु समसामयिक थे । दोनो के स्वर्गस्थ हो जाने विश्रुतनामधेय. । यो भद्रबाहु-मुनिपु गवपट्टपद्ममूर्य स वो पर प्रजा स्वच्छन्दचारिणी हो चली थी और योगियो मे दिशतु निर्मलमववृद्धिः । १।। स्वपर का मध्यवसाय रूप भाव उत्पन्न हो गया था। अतः अजमेर की पट्टावली मे इनके सम्बन्ध मे वर्णन तो महद्धिक लोगो ने जाति साकर्य से बचने के लिए ग्रामादिक इस प्रकार दिया गया है कि 'विक्रमार्क सुवर्ष ४ भद्रबाहु के नाम से कुलों की रचना कर दी और प्राचार्य महली शिष्य बैठा (भद्रबाहु) गुप्ति गुप्त तस्य नाम त्रयं ३ गुप्तिगुप्त ने मयो की रचना कर दी थी। अस्तु उक्त प्रमाणो पर महंतुली २ विशाखाचार्य ३ ।' किन्तु पट्ट प्रारम्भ करते

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429