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किरण १०] अपभ्रंश कवि पुष्पदन्त
[२६५ खेट-वासी अरहतके उपासक, भरत-द्वारासम्मानित, आश्रयमें रहे एक राजनैतिक व्यक्तिके। अपनी इस काव्य-प्रबंधसे लोगोंको पुलकित करनेवाले, पापरूपी विरोधी प्रकृतिके कारण उसके काव्यमें भी विरोधाकीचड़को धोनेवाले, अभिमान-मेरू पुष्पदंसने यह भास और श्लेषकी शैलियां व्यवहृत हुई हैं। यह काव्य जिनपद-कमलों में हाथ जोड़े हुए भक्ति - पूर्वक कहा जा सकता कि वह शैवसे जैन बने थे, या क्रोधन-संवत्सर में प्रसाद सुदी दसमीको बनाया।" राज-स्तुतिसे जिन-भक्तिकी ओर मुके थे। उनका
यह विरोधी स्वभाव शिवभक्तिका प्रसाद था, या ___ उक्त पंक्तियों में कविका साहित्यिक और व्यक्तिगत यह दोनों तरहका जीवन अंकित है। प्रेमीजीके शब्दोंमें
जिनभक्तिका प्रभाव, यह बताना हमारा काम नहीं। "इसमें कविकी प्रकृति और निःसंगताका एक चित्र
मून्यांकन-कवि स्वयंभूकी रामकथा (पउम सा खिंच जाता है।" इसमें संदेह नहीं कि कविकी
चरिउ) यदि नदी है, तो पुष्पदन्तका महापुराण एक ही भूख थी और वह थी निःस्वार्थ प्रेमकी।
समुद्र । सचमुच उनकी वाणी भलंकृता रसवती और भरतने भी उनकी इस भखको अपनी सजनता और जिनभक्तिसे भरित है। दर्शन और शास्त्रीय ज्ञानका शांत प्रकृतिसे शांत कर दिया। वे एक दूसरेके मानों उनके काव्यमें प्रदर्शन है, दर्शन और साहित्यकी पूरक थे । कविमें अभिमान था तो भरतमें विनय। पिछलो परम्पराके वे कितने विद्वान थे यह इसीसे एक भावुक था तो दूसरा विचारशील, एकमें काव्य- जाना जा सकता है कि उन्होंने अपनी प्रज्ञता प्रकट प्रतिभा थी दूसरेमें दुनियादारी।पुष्पदंतका फक्कड़
करनेके लिए, सभी दर्शनों इतिहास, व्याकरण, पन देखिए कि जीवन भर काव्य-साधना करके
पुराण तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश कवियोंवह अपनेको काव्य-पिसल्ल (काव्यका पिशाच) -
की लम्बी सूची दी है। (म. पु०१ संधि १ कडा कहनेसे नहीं चूके। अपनी प्राकृतिक संबंध में उनकी पुरा) । उनके काव्यमें ओज और प्रवाह है, पर यह व्यंग्योक्ति हैं 'दुबला-पतला सांवला शरीर एक- अनुभूतिमें वह पीछे नहीं है। प्रकृतिके उभय रूप दम कुरूप, पर स्वभाव हंसमुख, और जब बोलता उन्हें आकृष्ट करते हैं, ठाठ-बाटसे कहानी कहने में तो दंत-पक्तियोंसे दशों दिशाएँ धवलित हो उठतीं वह निपुण है, श्लिष्ट और सरल, कोमल तथा हैं।" इससे बढ़कर अपने संबंधमें निरहंकारी और कठोर-सभी तरहकी शैलियोंका प्रयोग वह कर स्पष्टवादी कौन हो सकता है। सचमुच उनके श्यामल
सकते हैं। छन्दोंकी कलामें वह अद्वितीय है। शरीर में सफेद दांत किसी लता में कुसुमकी भाँति
जीवन-काल में ही उनकी प्रतिभाकी धाक जम गई लगते होंगे।
थी, कोई उन्हें काव्य-पिसल्ल कहता था तो कोई
विद्वान् (म० पु०२ पृ०६)। हरिषेणने अपनी विरोधाभास :-कविके व्यक्तित्व में कई धर्मपरीक्षा' में लिखा है कि पुष्पदन्त मनुष्य थोड़े विरोधी बातोंका विचित्र सम्मिलन था । एक ओर ही है, सरस्वती उसका पीछा नहीं छोड़ती। कुछ वह अपनेको सरस्वती-निलय मानते हैं और आलोचकोंने पुष्पदंतकी पहचान इसी नामके दूसरे दूसरी ओर यह भी कहते थे कि मैं कुक्षिमूर्ख हूँ। व्यक्तियोंसे की है १ । पर यह निराधार कल्पना है। एक ओर तावमें आकर कवि सरस्वतीसे कहता प्रेमीजीने शिवमहिम्न स्तोत्रके लेखक पुष्पदंतसे है कि तुम जानोगी कहाँ मुझे छोड़कर, तो दूसरी इनकी एकता होनेकी संभावना व्यक्त की है, (जैन
ओर वह यज्ञ-यक्षणियोंसे काव्य-रचनाके लिए इतिहास और साहित्य पृ०३०२), पर यह भीख भी मांगते हैं। वे विलास और ऐश्वर्यसे जीवन अनुमान है, अत: विचार करना व्यर्थ है। दूसरे डा. भर दूर रहे, पर उनके काव्यमें इनका जीभर वर्णन हजारीप्रसादने लिखा है 'इनको ही हिन्दीकी भूली है। वे दुनियाके एक कोने में रहना पसद करते हुई अनुभुतियोंमें राजा मानका पुष्प कवि कहा थे, पर शायद दुनियाकी सर्वाधिक जानकारी गया है। (हिन्दी साहित्य पृ.२०)। पर यह उन्हींके काव्यमें है। वह राज्यके उम विरोधी थे, पर एकदम निमून और असंगत पहिचान है।