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अनेकान्त
[ वर्ष १४
नागार्जुनका समय सन् १८० निर्दिष्ट करना है, परन्तु राहसने जिसने उक्त शिलालेखको प्रकाशित किया था, उसके नागार्जुनका यह समय उन्होंने वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थमें आधार पर अपने मतमें परिवर्तन नहीं किया' स्वयं उनके दिये हुए अपने समन्तभद्र-सम्बन्धी लेखमें (पृ.३८४) इस कथनके विरुद्ध पड़ता है जो उन्होंने 'वर्णी अभिनन्दन'तत्त्वसग्रह' की जिस भूमिका पर आधारित किया है उस ग्रन्थ में प्रकाशित अपने लेखमें निम्न शब्दों-द्वारा व्यक्त भूमिकाके लेखक उस समयके सम्बन्धमें स्वयं संदिग्ध हैं किया है
"बादमें नागमंगल शिलालेखके आधार पर उन्होंने और उन्होंने जो सन् १८१ समय दिया है वह इस कल्पनाके
(लुइसराइसने इस तिथिको शक २५ (मन् २६३ ई.) आधार पर दिया है कि यदि १२ वें प्राचार्य (कुलगुरु) अश्वघोषकी मृत्युको सन् १२७ में मान लिया जाय
अनुमान किया था। दूसरे विद्वानोंने राइस साहबके प्रथम और उसके बाद होने वाले गुरुओंके समय। औसत
मतको ही स्वीकार किया है।"
शक सम्बनका दक्षिण में प्रचार होनेके लिये २५ वर्षका अन्तराल २७ वर्षका मान लिया जाय तो १४ वें गुरु
समय पर्याप्त है। उसमें असंभवता जैसी कोई बात नहीं नागार्जुनका मृत्यु-समय ई० १८१ और २१ गुरु विश्व
है, जिसकी लेखकने कल्पना कर डाली है। बन्धुका मृत्यु-समय ३.. ई. बैठता है। ऐसे अनिश्चित
श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें नं०१५, १६, अथवा १७ समयको 'अन्तिम ज्ञाततिथि' प्रकट करना और उसके आधार
पर उल्लेखित 'सामन्तभद्र' दिगम्बर-पट्टावल्यादिमान्य पर समन्तभद्रके समयका ठीक निर्णय दे देना कल्पनाकी
'समन्तभद्र' से भिन्न कोई दूसरे ही व्यक्रित्वके प्राचार्य थे, दौड़में वह जानेके सिवाय और कुछ भी नहीं है-उसे
इसका पोषक कोई भी पुष्ट प्रमाण अभी तक सामने नहीं निरापद नहीं कहा जा सकता । नागार्जुनके समय-सम्बन्धमें
लाया गया। प्रत्युत इसके अनेक विचारशीलताम्बर अनेक विद्वानोंका परस्पर मतभेद है। श्री राहुल सांकृत्यायन
विद्वान् भी दोनोंके एक व्यक्तित्वको मानते हैं । मुनि श्री 'वादन्याय' की अपनी काल निश्चायक सूचीमें नागार्जुन
कल्याणविजयजीने अपने द्वारा सम्पादित तपागच्छकी का समय २१.ई. बतलाते हैं और विग्रह-व्यावर्तिनीकी
पट्टावलीके प्रथम भाग (पृ. ८०) में प्राप्तमीमांसा, प्रस्तावनामें विस्रनीजके द्वारा मान्य समय १६६-१९६ ई.
युक्त्यनुशासन, स्वयंम्भू और जिनस्तुति शतकको अपने को ठीक बत जाते हैं। ऐसी स्थितिमें समन्तभद्रका समय सामन्तभद्रके पथ बतलाया है और लेग्वक महाशय इन्हीं शक संवत् ६० अर्थात ई. सन् १३८ नागार्जुनसे कितने
ग्रंथोंको अपने दि. समन्तभद्के ग्रन्थ बतलाते हैं, इससे भी ही वर्ष पूर्वका हो जाना है तथा समन्तभद्र नागार्जुनके
समन्तभद्र और सामन्तभद्र दोनोंका व्यक्रित्व एक ठहरता समकालीन होते हुए भी वृद्ध ठहरते हैं और यह बात है और वे दोनों संम्प्रदायोंक मान्य आचार्य पाये जाते हैं। लेखक महोदयके खुदके कथनके विरुद्ध पढ़ती है।
जिस प्रकार उमास्वाति और मिद्धसन प्राचार्योके नाम इसी तरह लखमें अन्य अनेक बातें भी कल्पित उभय-मंदायकी पट्टावलियों में पाए जाते हैं उसी प्रकार आधारों पर स्थित हैं और उनसे प्रकृत विषयका कोई खास समन्तभद्रका नाम भी दोनो सम्प्रदायों में अपने अपने सम्प्रदासमर्थन नहीं होता। जब तक गंगवंशकी स्थापनाका समय यके प्राचार्य रूपमें यदि पाया जाता है तो इसमें प्रापत्तिके इसाकी दूसरी शताब्दीसे भिन्न कोई दूसरा प्रबल प्रमाणोंके लिये कोई स्थान नहीं और न असंभव जैसी कोई बात ही प्राधार पर सुनश्चित न हो जाय तब तक कुछ विद्वानोंके
प्रतीतिमें आती है-खासकर उस हालतमें जबकि ग्रंथ भी कोरे अनुमानों, अटकलों अथवा उनके द्वारा शक सम्बत् दोनोंके भिन्न नहीं है और डा. भाण्डाकर-द्वारा प्रकाशित २५ वाले शिलालेखको उपेक्षाका कोई विशेष मूल्य नहीं पट्टावलीमें श्वे. श्रीचन्द्रसूरि और देवसूरिके मध्य में समझा जा सकता। उपेक्षा तो इसलिये भी हो सकती है सामन्तभद्रसूरिके पट्टका उल्लेख करते हुए उन्हें साफ तौर कि उसके पास उसके विरोधमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं था। पर "दिगम्बराचार्यः' इस विशेषणके साथ उल्लेखित किया है गंगवंशके मिन अभिलेखोंके जाली होने की कल्पना को और इस रूपसे ही उन्हें श्री वर्धमानस्वामीके द्वारा प्ररुपित जाती है उसके समर्थनमें जब तक कोई भी समर्थ एवं पुष्ट शुधर्मके पाराधकोंकी पट्ट-परम्परामें स्थान दिया है। प्रमाण सामने नहीं पाता तबतक उन्हें जाली नहीं माना लेखकका प्राचार्य कुन्दकुन्द, गुणधर, आर्य मंतु, नागजा सकता । लेखक महाशयका यह लिखना कि 'स्वयं लुइस हस्ती और धरसेनादि सभीको निश्चित रूपसे ईसाकी प्रथम